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    हम केवल शब्दों की बात करतें हुए, यह समझनें की कोशिश करतें हैं की यह  बात किस  आधार पर  बनती हैं- फल कर्मो के अधीन हैं और कर्म ही ईश्वर है, जिसे फल के रूप में जीव प्राप्त करता हैं, तो इसके लिए हमें पहले अपने  मतभेद को अलग रखकर, केवल शब्दों के भेद को समझना हैं और शब्दों के अर्थ को ग्रहण करना हैं, उसके बाद  इस  विषय में, हमारा भी एक विचार अपने आप बन जाता हैं, जिसकी अनुभूति सहज होती है, पहले एक शब्द लेतें हैं :- फल   हमारें लिए फल की उत्त्पति व्यवहारिक रूप से बीज  से होती है, अर्थात जब बीज का नाम हम सुनतें हैं, तो हमारी बुद्धि  धरती शब्द पर भी जाकर यह विचार करनें लगती हैं की बीज शब्द आया है, तो जरुर भूमि या  धरती अथवा पृथ्वी का संबंध बीज से होगा, हमें ऐसा इसलिए लगता, क्योंकि यह हमारा पहले का अनुभव है, जो शब्द के ज्ञान से प्राप्त होता है, हम इस अनुभव को कुछ इस तरह व्यक्त करतें हैं की बीज तो  धरती में बोया जाता हैं, फिर उस बीज से हम उसी जाति और उसी रूप के अनेक बीज प्राप्त कर लेतें हैं, यह उपाय या तरीका हम  ...
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हमें हैं, हमारी  सोच हैं, हमारा जीवन हैं हमारी जीवनशैली हैं, हमारा स्वभाव हैं, हमारा प्रभाव हैं, हमारी चाल हैं, हमारी ताल हैं,हमारा धमाल हैं, हमारा कमाल हैं, आना-जाना हमसे हैं, खाना-पीना हमसे है, लेना-देना हमसे हैं, रोना-धोना हमसे हैं,  विशवास-अविश्वाश हमसे हैं,रात-दिन हमसे हैं,यह अनंत संसार हमारा विस्तार हैं, हम हैं, तो सब हैं, हम ही नहीं, तो कोई भी नहीं, क्योंकि बीज के बिना पेड़ की कल्पना भी संभव नहीं, अत: हम और हमारें होने का संकल्प ही हमारी रचना हैं और उस रचना को व्यक्त करना ही हमारा कर्म हैं|   
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      ||ॐ श्री जय हंस निर्वाण निरंजन नित्य||              सकल घट एक अविनाशी,             सकल जग माहिं प्रकाशी |               मंदिर की सीढ़ियों पर लोग पैर रखकर जाते हैं, मंदिर  में रखी मूर्ति के आगे शीश झुकाते हैं | जिस पर पैर रखा वो पत्थर था, जिसको शीश नवाया  वो भी पत्थर ही था, फिर ये अंतर क्यू? कहेनें वाले कहते हैं कि जिसने.. जितना.. दर्द सहा  उसको.. उतना.. मिला | प्रश्न :- कका क्या कहूं ? करतार की, जिन घर ऐसी भूल | एक कंटक पौधा गुलाब का, तिनका ऐसा फूल |   उत्तर  :- शीश कटे पेम चढ़े, अंग लिपटाय धूल | इतना कष्ट पहले सहा, फिर पाया ऐसा फूल |        घर में जीवन या जीवन में घर   :- पहली मंजिल– मन घर- अपना ठिकाना दरवाज़े– प्यार के उम्मीदें– खिडकियों में नोंक-झोंक की– चहल-पहल सजावट– रिसाने और मनुहार की नींव– गहराई की सीमे...

जानते हैं ,तो झगड़ा किस बात का? नहीं जानते, तो झगड़ा किस बात का?

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                                                ||ॐ श्री जय हंस निर्वाण निरंजन नित्य ||   मानव धर्म में कोई छोटा कोई बड़ा नहीं होता- हम एक को जानते हैं और कोई दो को जानता हैं, एक का ज्ञाता जब दो के ज्ञाता से  मिलता हैं, तो क्या होगा? सोचे तो बहुत कुछ हो सकता हैं और सोचे ही नहीं तो?  हमें  ब्रह्म का ज्ञान हैं, इसलिए भ्रम हमें पसंद नहीं, लेकिन किसी अन्य को ब्रह्म का  ज्ञान नहीं इसलिए उसे भ्रम पसंद हैं, जो हमें पसंद नहीं वो किसी अन्य को पसंद हैं  और हम जो पसंद करते हैं वो किसी दूसरें  को पसंद नहीं आता, तो क्या हम एक  दूसरें के विरोधी हैं? क्या हमें एक मत की आवश्यकता हैं? क्या विरोधी स्वभाव के  कारण हम एकमत नहीं हो सकते? क्या हमारा विरोध सही हैं? क्या हमें कोई और  रास्ता तलाशना होगा? क्या हमारें बिना हमारें विरोधियो की पहचान हो सकती हैं?  हमारा महत्व क्या हैं? यह सबसे अधिक वही जानते हैं, जो हमा...