हम केवल शब्दों की बात करतें हुए, यह समझनें की कोशिश करतें हैं की यह बात किस आधार पर बनती हैं- फल कर्मो के अधीन हैं और कर्म ही ईश्वर है, जिसे फल के रूप में जीव प्राप्त करता हैं, तो इसके लिए हमें पहले अपने मतभेद को अलग रखकर, केवल शब्दों के भेद को समझना हैं और शब्दों के अर्थ को ग्रहण करना हैं, उसके बाद इस विषय में, हमारा भी एक विचार अपने आप बन जाता हैं, जिसकी अनुभूति सहज होती है, पहले एक शब्द लेतें हैं :- फल
हमारें लिए फल की उत्त्पति व्यवहारिक रूप से बीज से होती है, अर्थात जब बीज का नाम हम सुनतें हैं, तो हमारी बुद्धि धरती शब्द पर भी जाकर यह विचार करनें लगती हैं की बीज शब्द आया है, तो जरुर भूमि या धरती अथवा पृथ्वी का संबंध बीज से होगा, हमें ऐसा इसलिए लगता, क्योंकि यह हमारा पहले का अनुभव है, जो शब्द के ज्ञान से प्राप्त होता है, हम इस अनुभव को कुछ इस तरह व्यक्त करतें हैं की बीज तो धरती में बोया जाता हैं, फिर उस बीज से हम उसी जाति और उसी रूप के अनेक बीज प्राप्त कर लेतें हैं, यह उपाय या तरीका हम अनाज प्राप्त करने के लिए भी अपनाते हैं, यदि किसी फल की प्राप्ति करनी हो, तो उस फल के बीज को भूमि में लगाकर उसकी पूरी देखभाल करतें हुए, उस समय का इन्तजार करतें हैं, जिस समय में बीज, बीज नहीं रहता बल्कि एक बड़ा पेड़ बन जाता हैं, फिर धीरे-धीरे वो समय हमारें ख्यालों से निकलकर, हमारें सामने वर्तमान के रूप में आकर, हमें प्रत्यक्ष दिखाई देता हैं, उस समय को पाकर, हम आनंद की अनुभूति करतें हैं की जिस उम्मीद से हमने यह बीज बोया था, आज इस बीज ने वह उम्मीद पूरी कर दी, अर्थात पेड़ से हमें फल मिलने लगें, जो हमारें लिए लाभ को देनें वालें हैं और यह लाभ हम उन फलो को बाजार में बेचकर कमातें हैं, इससे हमारें अंदर एक और विचार आने लगता हैं, इस बार तो मुनाफा कम हुआ है, अगर अगली बार मुनाफा ज्यादा हुआ, तो क्यों ना? हम इसी बीज के ढेर सारे बीज करके, उनका एक बगीचा ही खड़ा कर लें, फिर तो हम भी अमीर बन जाएंगे, यह मोका हमारें लिए अच्छा साबित हो सकता हैं, यह सोचकर हम उस समय का इंतज़ार करतें हैं, जिस की कल्पना हमने इस बार की हैं, वो समय भी हमारें लिए वर्तमान बनकर, जब आता तब हम उस विचार को हकीकत का रूप देनें में लगें रहतें हैं, यदि फल के दाम अच्छे मिलतें हैं, तो हम उसी काम को अपना व्यापार बना लें ऐसा सोचतें हैं, यह मुकाम भी हम धीरे-धीरे हासिल कर लेतें हैं, पर हमें यह ज्ञात नहीं रहता की हमारें साथ ये हो क्या रहा हैं, अर्थात हम किस रास्तें के मुसाफिर हैं, हमें खुद नहीं पता? क्योंकि हमारी नजर में बीज आया, तो उस बीज से जुड़े अनंत ख्याल बारी-बारी करके हमारी नजरों के सामने घूम रहें थे, तो हमने एक एक करके हर एक ख्याल को पूरा किया और उस हद तक किया, जिस हद तक हम कर सकतें थे, लेकिन पता नहीं क्यों? हमें इस मुनाफे की ख़ुशी भी अब गम लगती हैं, आखिर ऐसा हमारें साथ क्या हुआ? हमें तो यह भी नहीं पता? क्योंकि हमने जो चाहा, वो हमें मिला, उसमें कोई संशय नहीं, फिर यह कैसा विचार हैं? जिसे हम नहीं समझ सकें, हम तो अच्छे व्यपारी हैं, दूसरों के मन में क्या चल रहा हैं? यह तक पढ़ लेतें हैं और आज तो हम अपने ही मन को नहीं पढ़ सकें, यह विचार ही कुछ ऐसा हैं की जितना सुलाझाओं, उतना ही उलझता जा रहा हैं, हमें इसका कोई तो? उपाय या हल निकलना होगा, वरना हमारें लिए यह विचार ही, एक अनसुलझी पहेली बनकर बार बार हमें सताता रहेगा, इस से पहले ही, इस विचार का कुछ तो करना ही पड़ेगा, हम अपने विचारों को ही फिर से टटोल लें, क्या पता? हमारें विचारों में ही, हमारें इस विचार का हल छुपा हो और हम उसे आसानी से नहीं देख पा रहें हो, इसलिए हमें अपने विचार एक बार फिर से फेरने होगें, हम स्थिर चित होकर बैठे थे की अचानक हमारा ध्यान एक बीज पर गया, उसे देखतें ही हमें दूसरा विचार आया, क्यों न? हम इस बीज को भूमि में लगाकर इससे फल और छाया का लाभ लें, इसी के साथ कई और विचार जुड़ गयें, इनमें एक विचार लाभ को स्थाई बनाने का भी था, उस को भी हमने पाया, पर यह क्या? इस लाभ का स्थाई भाव भी, हमें फीका लगा, क्या हमारें लिए कुछ और करना शेष रह गया? जो हमें नहीं पता हो, शायद! क्यों न? हम इसके बारें में किसी और की राय लें, क्या पता? हमारी समझ का फेर हो, जो थोड़े-से इशारें मात्र से दूर हो सकता है और बात हमारें समझ में आ जाएँ, पर हम इसके लिए दूसरों से क्या प्रश्न करें ? क्योंकि हमें तो प्रश्न पूछने की कला नहीं आती और हमने तो आज तक, उत्तर की तलाश में ही, यहाँ तक का और इतना सफर तय कर लिया, जहाँ आकर हमारें सारें उत्तर प्रश्न में बदल गयें, पर हमें खुद नहीं पता की इन उत्तरों में सही प्रश्न कौन सा है ,जिसके आधार पर हम आगे के लिए उत्तर की खोज कर सकें, हमें फिर से वही जाना होगा, जहाँ से हमने शुरुआत की थी, क्यों की हमारें उत्तर बिना प्रश्न की और देखें वहीं से शुरू हुए थे, अब हम वहीं से हर उत्तर को पहले प्रश्न की नजर से देखेंगे, तो शायद हमारें हर उत्तर का एक सटीक प्रश्न हो और हर प्रश्न का एक ससटीक उत्तर हो, हमने हर विचार के उत्तर में कर्म किया प्रश्न नहीं किया, अगर हम प्रश्न ही करतें और कर्म नहीं करतें, तो यह सफलता हमें नहीं मिलती, यह क्या? विचार आया तो अपने साथ कर्म लेकर और जैसे ही विचार आया हमने काम शुरू कर दिया, बिना जांच परख या सही गलत का ध्यान दिए, हमें जो विचार आयें तो क्या हमें हर विचार पर प्रतिक्रिया करनें की आवश्यकता है? पता नहीं? हमने तो हर विचार पर अपने विचार रखकर ,उनको आजमाने में लगें रहें, यह कभी समझने की कोशिश ही नहीं रही, सामने रखी हुई चीज या वस्तु भी क्या पता? हमें कुछ संकेत देना चाहती हो, हमारी यह नजरंदाजी हमें उलझन में खड़ा कर गई, आज के बाद हम हमारें विचारों से ज्यादा वस्तु पर ध्यान देगें और जानने की कोशिश करतें रहेंगे की इस संसार की ......वस्तुएं हमें क्या संकेत देती हैं,
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