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                                                                                                                       बोझ या भार अथवा वजन यह शब्द अनेक अर्थ के लिए प्रयुक्त होता है, हम जिसे बोझ समझतें हैं, उसको ज्यादा समय तक अपने पास नहीं रखतें, क्या है बोझ ? हमारा अपना है या हमने इसे अपना मान लिया है, यह तो हमारें कार्य से पता चलता है, बोझ से उब किसे नहीं होती, सब बोझ से उब जातें हैं और उसे उतारनें में लगें रहतें हैं, व्यवहार में यह शब्द  अर्थ से जुड़ा है,गरीबी में यह (बोझ) कर्ज हैं, कर्ज(बोझ को स्वयं से अलग जानकर इस से ) मुक्त होना ही मनुष्य मात्र का फर्ज हैं और परमार्थ के मार्ग में यह (बोझ) केवल कर्तव्य मात्र है, अज्ञान में यह (बोझ) दुःख है, ज्ञान में यह (बोझ)  मिथ...

सहज मिले सो सहज है, सहज ही सहज पाई, तो सहज सहज रहाई, इसलिए सहज सहज में समाई, जो सहजा आय , सो सहजा रहाय, सो ही सहजा जाय, लाख करो किनकोई, इसमें संशय न कोई |

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प्रकट रूप में जो जैसा है, उसे उसी रूप में सहज भाव से समझ लेतें हैं अर्थात जहाँ  हम शब्द और अर्थ के स्थाई  भाव से जुड़ हुए हैं, वहां उस शब्द और शब्द के अर्थ के लिए हमें किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती, क्यों कि इसकी प्रमाणिकता स्वयं सिद्ध होती है- जैसे भूख - प्यास के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं, क्यों की इसकें लिए भिन्न भिन्न शब्दों का प्रयोग करनें पर भी शब्दों के अर्थ में बदलाव नहीं होता अर्थात भाव स्थाई रूप से एक ही रहता है और जहाँ एक भाव की बात आती है, वहां हम किसी से प्रमाण नहीं माग्तें हैं, बल्कि स्वयं किसी बात को समझाने के लिए उस शब्द और उसके अर्थ को ही प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करनें लग जातें हैं, जैसे :- ज्ञानी को ज्ञानी और अज्ञानी को अज्ञानी कहनें में किसी को कोई संशय नहीं रहता है अर्थात जो जैसा है, वैसा  ही प्रकट होता हैं, तो संशय नहीं रहताऔर जसमें कोई संशय नहीं रहता है, उसे हम सरलता से मान लेतें है, कर लेतें है, समझ लेतें है, जान लेतें है| इन सब के पीछे हमारा प्राप्त ज्ञान है और उस ज्ञान के पीछे हम हैं, यदि हम ना रहें, तो क्या हमारा ज्ञान रहेंगा? ...
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वेदों के सार को सूत्र रूप में व्यक्त  करनें वालें वाक्य ही महावाक्य हैं | महावाक्य   उपनिषद वाक्यो का निर्देश है, जो स्वरूप में लघु है, परन्तु  इन में बहुत गहन विचार समाये हुए है। प्रमुख उपनिषदों में से इन वाक्यो को महावाक्य माना जाता है - अहं ब्रह्मास्मि - "मैं ब्रह्म हुँ"  ( बृहदारण्यक उपनिषद 1 / 4 / 10 - यजुर्वेद) तत्वमसि - "वह ब्रह्म तु है"  ( छान्दोग्य उपनिषद 6/8/7- सामवेद ) अयम् आत्मा ब्रह्म - "यह आत्मा ब्रह्म है"  ( माण्डूक्य उपनिषद 1/2 - अथर्ववेद ) प्रज्ञानं ब्रह्म - "वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है"  ( ऐतरेय उपनिषद 1/2 - ऋग्वेद) सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् - "सर्वत्र ब्रह्म ही है"  ( छान्दोग्य उपनिषद 3/14/1- सामवेद ) -  उपनिषद के यह महावाक्य निराकार ब्रह्म और उसकी सर्वव्यापकता का परिचय देते है।  यह महावाक्य उद्घोष करते हैं कि मनुष्य देह, इंद्रिय और मन का संघटन मात्र नहीं है, बल्कि वह सुख-दुख, जन्म-मरण से परे दिव्यस्वरूप है, आत्मस्वरूप है।  आत्मभाव से मनुष्य जगत ...