सहज मिले सो सहज है, सहज ही सहज पाई, तो सहज सहज रहाई, इसलिए सहज सहज में समाई, जो सहजा आय , सो सहजा रहाय, सो ही सहजा जाय, लाख करो किनकोई, इसमें संशय न कोई |




प्रकट रूप में जो जैसा है, उसे उसी रूप में सहज भाव से समझ लेतें हैं अर्थात जहाँ  हम शब्द और अर्थ के स्थाई  भाव से जुड़ हुए हैं, वहां उस शब्द और शब्द के अर्थ के लिए हमें किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती, क्यों कि इसकी प्रमाणिकता स्वयं सिद्ध होती है- जैसे भूख - प्यास के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं, क्यों की इसकें लिए भिन्न भिन्न शब्दों का प्रयोग करनें पर भी शब्दों के अर्थ में बदलाव नहीं होता अर्थात भाव स्थाई रूप से एक ही रहता है और जहाँ एक भाव की बात आती है, वहां हम किसी से प्रमाण नहीं माग्तें हैं, बल्कि स्वयं किसी बात को समझाने के लिए उस शब्द और उसके अर्थ को ही प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करनें लग जातें हैं, जैसे :- ज्ञानी को ज्ञानी और अज्ञानी को अज्ञानी कहनें में किसी को कोई संशय नहीं रहता है अर्थात जो जैसा है, वैसा  ही प्रकट होता हैं, तो संशय नहीं रहताऔर जसमें कोई संशय नहीं रहता है, उसे हम सरलता से मान लेतें है, कर लेतें है, समझ लेतें है, जान लेतें है|

इन सब के पीछे हमारा प्राप्त ज्ञान है और उस ज्ञान के पीछे हम हैं, यदि हम ना रहें, तो क्या हमारा ज्ञान रहेंगा? नहीं? या हाँ ...
यदि हमें ज्ञान नहीं होता, तो क्या हम नहीं रहतें?
क्या ऐसा हो सकता है?
अर्थात हम हैं,
इसलिए अज्ञान भी है और ज्ञान भी है,
जब हम आरम्भ करतें है, तो शुरुआत एक छोर से करतें हैं और हमें जाना उसी छोर पर चलकर दूसरी छोर हैं,

जैसे :- एक डोरी पर चलनें वाला ड्रामा होता है, उसमें एक ही डोरी होती है उसके तीन भाग करतें हैं, कल्पना के आधार पर, जहाँ से आरम्भ करेंगे, उसे पहला छोर मानतें हैं और ठीक उसी जैसा दूसरा छोर भी है,  जिसे अंत का छोर कहतें,

डोरी के दोनों छोर एक जैसे कैसे हो सकतें हैं?
यह इसलिए हो सकता है, क्योंकि हमें डोरी का ज्ञान है इसलिए हम उसे अपने ज्ञान के अनुसार प्रयोग करतें हैं, हम जैसा चाहें वैसा कर लें अर्थात इस छोर से चलें या उस छोर से यह हमारी समझ हैं,
रस्सी को इस फसलें से कोई आपति नहीं हैं,
इसका कारण यही है कि रस्सी अपने आप को नहीं जानती है,
रस्सी जड़ रूप है, इसलिए रस्सी ज्ञान और अज्ञान दोनों से अलग है, अर्थात रस्सी को ज्ञान भी नहीं होता और रस्सी में अज्ञान भी नहीं रहता है,
हम जैसा- चाहें, वैसा कर तो सकतें हैं,
पर यह मर्जी भी  समझ के अनुसार होती है अर्थात चाहतें हम हैं और होता भी वही है, जो हम चाहतें हैं,
पर हकीकत में हमारें लिए होता उतना ही होता है, जितना हमारी समझ में आता है,
इसलिए चाहत को दबाने वाली और जगाने वाली समझ के अनुसार हम चलतें हैं,
समझ का भी, ज्ञान और अज्ञान से कोई संबंध नहीं,
क्योंकि समझ हमारें पीछे नहीं चलती है, बल्कि हम समझ के पीछे चलतें हैं,
इसलिए समझ को ना तो ज्ञान होता है और ना ही अज्ञान होता है,
समझ को हमनें पकड़ा और चल दियें,
जैसा हमनें समझा, वैसा समझ ने नहीं किया,
बल्कि जैसा हमें समझ आया, उसी तरह हम समझतें गयें और करतें गयें,
जो किया वही हमें मान समान, अभिमान, अपमान आदि रूप में मिलता गया और जो मिलता गया,
उसको पकड़ने की कोशिश भी नहीं की,
पर यह ख्याल सदा रहता है कि कुछ तो मिला है और कुछ नहीं मिला हैं अर्थात थोड़ा जान लिया और थोड़ा जानना बाकी है,
कुछ तो हमनें पाया है और कुछ पाना बाकी है,
कुछ तो है, जो हमारें हाथों से छुट रहा है; कुछ तो हैं, जो हम छोड़ना नहीं चाहतें;
पर क्या है? और क्यों है? यह जब तक ज्ञात नहीं होता,
तब तक विचार पर ध्यान नहीं जाता और जब ध्यान ही नहीं जाता,
तो उस विचार को समझने की आवश्यकता भी नहीं बनती है,
बिना आवश्यकता के प्रयत्न नहीं होता और प्रयत्न के बिना जो ज्ञात है,
वह भी हमारें लिए अज्ञात बनकर रहता है-
जैसे :- हम कुछ बातें कभी नहीं भूलतें, तो कुछ बातें हम बार बार भूल ही जातें हैं, लाख कोशिशों के बावजूद ऐसा ही होता है अर्थात जो बातें हम याद नहीं करना चाहतें, वो याद आती हैं और जो बातें हम याद रखना चाहतें हैं, वो कभी स्थाई रूप से  याद नहीं रहती,
इसमें केवल हमारें अपने संस्कार हैं और कुछ विशेष नहीं है,
इसलिए संस्कारों के अनुरूप विचारों की पौध ह्रदय रूपी भू भाग में पैदा होती है और संस्कार से जो विचार पैदा होतें हैं, उनका पालन-पोषण तथा नाश भी संस्कार से ही होता है, इसके लिए कोई विशेष प्रावधान करनें की आवश्यकता नहीं होती है|
       

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