वेदों के सार को सूत्र रूप में व्यक्त करनें वालें वाक्य ही महावाक्य हैं |
महावाक्य उपनिषद वाक्यो का निर्देश है, जो स्वरूप में लघु है, परन्तु इन में बहुत गहन विचार समाये हुए है।
प्रमुख उपनिषदों में से इन वाक्यो को महावाक्य माना जाता है -
अहं ब्रह्मास्मि - "मैं ब्रह्म हुँ"
( बृहदारण्यक
उपनिषद 1/4/10 - यजुर्वेद)
तत्वमसि - "वह ब्रह्म तु है"
( छान्दोग्य उपनिषद 6/8/7-
सामवेद )
अयम् आत्मा ब्रह्म - "यह आत्मा ब्रह्म है"
( माण्डूक्य
उपनिषद 1/2 - अथर्ववेद )
प्रज्ञानं ब्रह्म - "वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है"
( ऐतरेय उपनिषद 1/2 - ऋग्वेद)
सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् - "सर्वत्र ब्रह्म ही है"
( छान्दोग्य उपनिषद 3/14/1- सामवेद )-
उपनिषद के यह महावाक्य निराकार ब्रह्म और उसकी सर्वव्यापकता का परिचय देते है।
यह महावाक्य उद्घोष करते हैं कि मनुष्य देह, इंद्रिय और मन का संघटन मात्र नहीं है, बल्कि वह सुख-दुख, जन्म-मरण से परे दिव्यस्वरूप है, आत्मस्वरूप है।
आत्मभाव से मनुष्य जगत का द्रष्टा भी है और दृश्य भी।
जहां-जहां ईश्वर की सृष्टि का आलोक व विस्तार है,
वहीं-वहीं उसकी पहुंच है। वह परमात्मा का अंशीभूत आत्मा है।
यही जीवन का चरम-परम पुरुषार्थ है।
उपनिषद के ये महावाक्य मानव जाति के लिए महाप्राण,
संजीवनी बूटी के समान हैं,
जिन्हें हृदयंगम कर मनुष्य आत्मस्थ हो सकता है।
पूर्णात् पूर्णम् उदच्यते
पूर्ण से पूर्ण ही पैदा होता है|
पूर्ण से पूर्ण ही पैदा होता है; लगता अपूर्ण है, लगता छोटा है पर ये पूरा सूरज उतरा हुआ है|
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
और जब पूर्ण से पूर्ण पैदा हो जाता है उसके बाद भी पूर्ण, पूर्ण ही रहता है|
पहला महावाक्य है, “प्रज्ञानं ब्रह्म”
(ऐतरेय उपनिषद् - ऋगवेद )
दूसरा महावाक्य है, “अयं आत्मा ब्रह्म”
(मांडूक्य उपनिषद् - अथर्ववेद )
तीसरा महावाक्य है, “तत् त्वम् असि”
(छान्दोग्य उपनिषद्सा - मवेद )
चौथा महावाक्य है, “अहम् ब्रह्मास्मि”
(बृहदारणयक उपनिषद् - यजुर्वेद )
“प्रज्ञानं ब्रह्म”
ज्ञान का अर्थ होता है जानकारी,
संसार को जाननें का नाम ज्ञान है, यह जानकारी नानत्व का ज्ञान हैं, जिसमें भिन्नता की प्रधानता रहती हैं
ज्ञान संसार है, प्रज्ञान सत्य है और सत्य स्वयं व्यापक
आत्मा हैं, सो आत्मा ही ब्रह्म है
अर्थात
आत्मा हैं, सो आत्मा ही ब्रह्म है
अर्थात
ऐसी अवस्था जिसमें, स्वयं के अस्तित्व के,
होने या ना होने का,
किसी भी प्रकार से,
कोई भाव नहीं रहता है |
कोई भाव नहीं रहता है |
इन्द्रियों से जाना गया संसार ज्ञान है और इस इन्द्रियजन्य ज्ञान से अतीत जो ज्ञान हैं उसे प्रज्ञान कहा हैं, यह तो पहले महावाक्य का सार हैं
संसार ज्ञान का केद्र है और
ज्ञान इन्द्रियों का विषय हैं, जिसका सीधा संबंध
मनुष्य ,प्रकृति और पर्यावरण से हैं
और
मनुष्य ,प्रकृति और पर्यावरण से हैं
और
इन्द्रियों से अतीत जो हैं, वही प्रज्ञान है, प्रज्ञान ही आत्मा है,
अत: अपने व्यापक रूप में आत्मा ही ब्रह्म हैं|
अत: अपने व्यापक रूप में आत्मा ही ब्रह्म हैं|
अयं आत्मा ब्रह्म”
आत्मा ज्ञानातीत है, क्योंकी ज्ञान से आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं
अर्थात जो जाना गया हैं,
वह असत् और नाशवान हैं,
यही सत्य है और इस सत्य का ज्ञाता स्वयं नाश रहित हैं अत: यह संबंध
स्वत: ही होकर भी नहीं होने जैसा है|
ज्ञान प्रकाश है,
तो आत्मा उस प्रकाश को भी,
प्रकाशित करनें वाला हैं|
इस से यह ज्ञात होता हैं की आत्मा स्वयं प्रकाश रूप हैं इसलिए उसे किसी प्रकाश की आवश्यकता नहीं हैं|
आत्मा स्वयं प्रकाश रूप होने से सम्पूर्ण संसार उस से प्रकाशित होता हैं, अर्थात संसार का ज्ञान आत्मा के प्रकाश से जाना जाता हैं,
अत: आत्मा सम्पूर्ण संसार में व्यापक है,
इसलिए व्यापक आत्मा कैसा हैं ?
यह आत्मा ब्रह्म रूप हैं|
“तत् त्वम् असि”
प्रज्ञान आत्मा हैं और आत्मा ही ब्रह्म हैं अत: ब्रह्म कोई और नहीं
तुम्हारा ही व्यापक स्वरूप हैं.
इसलिए वह ब्रह्म तु है|
“अहम् ब्रह्मास्मि”
जो सत्य और स्वयं सिद्ध हैं, प्रमाण रहित होकर भी
प्रमाणों का प्रमाण हैं, जिसमें सभी भांति के ज्ञान और विज्ञानं समाहित हैं , वही प्रज्ञान आत्मा ब्रह्म तू है ,इस सत्य को जानकर इसे मानतें हुए
तुम ही यह कहतें हो की मैं ब्रह्म हूँ
अर्थात
इस सत्य (अहम् ब्रह्मास्मि)की घोषणा करने वाला भी तू ही हैं |
अत:
"वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है"
"यह आत्मा ब्रह्म है"
"वह ब्रह्म तु है"
"मैं ब्रह्म हुँ"
यह सब कथन करने वाला कोई और नहीं स्वयं तू ही है,
जो स्वयं को
कभी वह कहता है,
तो
कभी यह कहता है,
और
कभी तू कहता है,
तो
कभी मैं कहता हैं,
और
कभी सब कहता हैं|
कभी वह कभी यह बनकर
कभी तू कभी मैं बनकर
जब बोलता हैं तो वक्ता
और सुनता हैं तो
श्रोता बनकर
वक्ता- श्रोता
इन सब
की
भूमिका अदा करनें वाला भी स्वयं ही स्वयं को समझता है|
अन्य दो महावाक्य
सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् - "सर्वत्र ब्रह्म ही है"
( छान्दोग्य उपनिषद 3/14/1- सामवेद )
और सोहं
(यह महावाक्य विष्णु भगवान के हंस अवतार से जुड़ा हैं)
हंसो, हंसोहं—इस पुनरावर्तित क्रम से जप करते रहने पर शीघ्र ही ‘सोहं-सोहं’ ऐसा जप होने लगता है।
योगवेत्ता इसे जानते हैं।हंस तत्व में लीन हो, तो मन के संकल्प-विकल्प समाप्त हो
और
शक्ति रूप, ज्योति रूप, शुद्ध-बुद्ध, नित्य निरंजन ब्रह्म का प्रकाश प्रकाशवान हो,
प्राणिनां देहमध्ये तु स्थितो हंसः सदाऽच्युतः ।
हंस एव परं सत्यं हंस एव तु सत्यकम् ।।
हंस एव परं वाक्यं हंस एव तु वैदिकम् ।
हंस एव परो रुद्रो हंस एव परात्परम् ।।
सर्वदेवस्य मध्यस्थो हंस एव महेश्वरः ।
हंसज्येातिरनूपम्यं देवमध्ये व्यवस्थितम् ||
—ब्रह्म विद्योपनिषद्
प्राणियों की देह में भगवान ‘हंस’ रूप में अवस्थित है। हंस ही परम सत्य है, हंस ही परम् बल है।
समस्त देवताओं के बीच ‘हंस’ ही परमेश्वर है। हंस ही परम वाक्य है, हंस ही वेदों का सार है, हंस परम् रुद्र है, हंस ही परात्पर है।
समस्त देवों के बीच हंस अनुपम ज्योति बनकर विद्यमान है।
इस संसार में ‘हंस’ विद्या के समान और कोई साधन नहीं। इस महाविद्या को देने वाला ज्ञानी सब प्रकार सेवा करने योग्य है।
हंस एव परं सत्यं हंस एव तु सत्यकम् ।।
हंस एव परं वाक्यं हंस एव तु वैदिकम् ।
हंस एव परो रुद्रो हंस एव परात्परम् ।।
सर्वदेवस्य मध्यस्थो हंस एव महेश्वरः ।
हंसज्येातिरनूपम्यं देवमध्ये व्यवस्थितम् ||
—ब्रह्म विद्योपनिषद्
प्राणियों की देह में भगवान ‘हंस’ रूप में अवस्थित है। हंस ही परम सत्य है, हंस ही परम् बल है।
समस्त देवताओं के बीच ‘हंस’ ही परमेश्वर है। हंस ही परम वाक्य है, हंस ही वेदों का सार है, हंस परम् रुद्र है, हंस ही परात्पर है।
समस्त देवों के बीच हंस अनुपम ज्योति बनकर विद्यमान है।
इस संसार में ‘हंस’ विद्या के समान और कोई साधन नहीं। इस महाविद्या को देने वाला ज्ञानी सब प्रकार सेवा करने योग्य है।
पाशान् छित्त्वा यथा हंसो निर्विशङ्क खमुत्पतेत् ।
छिन्नपाशस्तथा जीवः संसार तरते सदा ।।
—क्षुरिकोपनिषद्
जिस प्रकार हंस स्वच्छन्द होकर आकाश में उड़ता है उसी प्रकार इस हंसयोग का साधक सर्व बन्धनों से विमुक्त होता है।
जिस प्रकार हंस स्वच्छन्द होकर आकाश में उड़ता है उसी प्रकार इस हंसयोग का साधक सर्व बन्धनों से विमुक्त होता है।
‘ह’ और ‘स’ अक्षरों की पृथक्-पृथक् विवेचना भी शास्त्रकारों ने अनेक प्रकार से की है। इन अक्षरों से कई प्रकार के अर्थ निकलते हैं और दोनों के योग से साधक को एक उपयुक्त धारा मिलती है।
हकारो निर्गमे प्रोक्तः सकारेण प्रवेशनम् ।
हकारः शिवरूपेण सकारः शक्तिरुच्यते ।।
—शिव स्वरोदय
श्वास के निकलने में ‘हकार’ और प्रविष्ट होने में साकार होता है।
श्वास के निकलने में ‘हकार’ और प्रविष्ट होने में साकार होता है।
हकार शिवरूप और साकार शक्तिरूपा कहलाता है।
हकारेण तु सूर्यः स्यात् सकारेणेन्दुरुच्यते ।
हकारेण तु सूर्यः स्यात् सकारेणेन्दुरुच्यते ।
सूर्य चन्द्रमसोरैक्यं हठ इत्यभिधीयते ।।
हठेन ग्रस्यते जाड्यं सर्वदोष समुद्भवम् ।
क्षेत्रज्ञः परमात्मा च तपोरैक्य तदाभवेत् ।।
—योग शिखोपनिषद्
हकार से सूर्य या दक्षिण स्वर होता है और साकार से चन्द्र या वाम स्वर होता है।
हकार से सूर्य या दक्षिण स्वर होता है और साकार से चन्द्र या वाम स्वर होता है।
इस सूर्य चन्द्र दोनों स्वरों में समता स्थापित हो जाने का नाम हठयोग है। हम द्वारा सब दोषों की कारणभूत जड़ता का नाश हो जाता है और तब साधक क्षेत्रज्ञ (परमात्मा) से एकता प्राप्त कर लेता है।
जीवात्मा सहज स्वभाव सोहम् का जप श्वास-प्रश्वास क्रिया के साथ-साथ अनायास ही करता रहता है।
जीवात्मा सहज स्वभाव सोहम् का जप श्वास-प्रश्वास क्रिया के साथ-साथ अनायास ही करता रहता है।
यह संख्या औसतन चौबीस घंटे में 21600 के लगभग हो जाती है।
—गोरक्ष संहिता 41-42
हकारेण बहियति सकारेण विशेत्पुनः ।
हंस हंसेत्यमुं मन्त्रं जीवो जपति सर्वदा ।।
षट शतानि त्वहोरात्रे सहस्राण्येकविंशति ।
एतत्संख्यान्वितं मंत्रं जीवो जपति सर्वदा ।।
यह जीव हकार की ध्वनि से बाहर आता है और साकार की ध्वनि से भीतर जाता है,इस प्रकार वह सदा हंस-हंस जप करता रहता है।
इस तरह वह एक दिन रात में जीव इक्कीस हजार छह सो मंत्र सदा जपता रहता है।
संस्कृत व्याकरण के आधार पर सोऽहं का संक्षिप्त रूप ॐ हो जाता है।
साकारं च हकारं च क्तोपयित्व प्रयोजनेत् ।
संधि च पूर्व रूपाख्यां ततोऽसौप्रणवो भवेत् ।।
सोहम् पद में से साकार और हकार का लोप करके संधि योजना करके वह प्रणव ॐकार रूप हो जाता है।
हंस योग के अभ्यास का असाधारण महत्व है। उसे कुण्डलिनी जागरण साधना का तो एक अंग ही माना गया है।
विभर्ति कुण्डली शक्ति रात्मानं हंसयाश्रिता
सोहम् पद में से साकार और हकार का लोप करके संधि योजना करके वह प्रणव ॐकार रूप हो जाता है।
हंस योग के अभ्यास का असाधारण महत्व है। उसे कुण्डलिनी जागरण साधना का तो एक अंग ही माना गया है।
विभर्ति कुण्डली शक्ति रात्मानं हंसयाश्रिता
—तन्त्र सार
कुण्डलिनी शक्ति आत्म क्षेत्र में हंसारूढ़ होकर विचरती है।
कुण्डलिनी शक्ति आत्म क्षेत्र में हंसारूढ़ होकर विचरती है।
हंस पक्षी में भी स्वच्छ धवलता
—नीर क्षीर विवेकयुक्त आहार विशेषताओं की ओर इंगित करते हुए निर्मल जीवन सत्-असत् निर्धारण एवं नीति युक्त उपलब्धियों को ही अंगीकार किया जाना जैसी उत्कृष्टताओं का प्रतीक माना गया है
हंस योग की सोहम् की साधना का निर्देश है।
—प्रपञ्च तन्त्र
देहो देवालयः प्रोक्तो जीवो नाम सदा शिवः ।
त्यजेद ज्ञानं निर्माल्यं सोह् भावेन पूजयेत् ।।
देह देवालय है।
इसमें जीव रूप में शिव विराजमान हैं।
इसकी पूजा वस्तुओं से नहीं सोऽहम् साधना से करनी चाहिए।
अन्तःकरण में हंस वृत्ति प्रकाशमान हो|
सोऽहम् साधना के पूर्व भाग में श्वास लेते समय ‘सो’ ध्वनि
के साथ जीवन सत्ता पर
उस ‘परब्रह्म परमात्मा का शासन
आधिपत्य स्थापित होने की स्वीकृति है।
उत्तरार्ध में ‘हम्’ को—अहंता को—विसर्जित करने का भाव है।
सांस निकली साथ-साथ अहम् भाव का भी निष्कासन हुआ।
अहंता ही लोभ और मोह की जननी है।
शरीराभ्यास में जीव उसी की प्रबलता के कारण डूबता है।
माया, अज्ञान, अन्धकार, बन्धन आदि की भ्रांतियां एवं विपत्तियां इस अहंता के कारण ही उत्पन्न होती हैं।
इसे विसर्जित कर देने पर ही भगवान का अन्तःक्षेत्र में प्रवेश करना—निवास करना सम्भव होता है।
इस छोटे से मानवी अन्तःकरण में दो के निवास की गुंजाइश नहीं है।
पूरी तरह एक ही रह सकता है।
दोनों रहे तो लड़ते-झगड़ते रहते हैं
और अंतर्द्वंद्व की खींचतान चलती रहती है।
भगवान् को बहिष्कृत करके
पूरी तरह ‘अहंमन्यता’ को प्रबल बना लिया जाय
तो मनुष्य दुष्ट दुर्बुद्धि क्रूर-कर्मा असुर बनता है।
अपनी कामनाएं—
भौतिक महत्वाकांक्षायें ऐषणायें समाप्त करके ईश्वरीय निर्देशों पर चलने का संकल्प ही आत्म समर्पण है।
यही शरणागति है।
यही ब्राह्मी स्थिति है।
इसे प्राप्त होते ही मनुष्य में देवत्व का उदय होता है,
तब ईश्वरीय अनुभूतियां चिन्तन में उत्कृष्टता और
व्यवहार में आदर्शवादिता भर देती हैं।
ऐसे ही व्यक्ति महामानव ऋषि,
देवता एवं अवतार के नाम से पुकारे जाते हैं।
‘सो’ में भगवान का शासन आत्म-सत्ता पर स्थापित करने और
‘हम्’ में अहंता का विसर्जन करने का भाव है।
प्रकारान्तर से इसे महान् परिवर्तन का आन्तरिक कायाकल्प का बीजारोपण कह सकते हैं।
सोऽहम् साधना का यही है भावनात्मक एवं व्यावहारिक स्वरूप।
ईश्वर जीव को ऊंचा उठाना चाहता है।
सोऽहम् साधना के पूर्व भाग में श्वास लेते समय ‘सो’ ध्वनि
के साथ जीवन सत्ता पर
उस ‘परब्रह्म परमात्मा का शासन
आधिपत्य स्थापित होने की स्वीकृति है।
उत्तरार्ध में ‘हम्’ को—अहंता को—विसर्जित करने का भाव है।
सांस निकली साथ-साथ अहम् भाव का भी निष्कासन हुआ।
अहंता ही लोभ और मोह की जननी है।
शरीराभ्यास में जीव उसी की प्रबलता के कारण डूबता है।
माया, अज्ञान, अन्धकार, बन्धन आदि की भ्रांतियां एवं विपत्तियां इस अहंता के कारण ही उत्पन्न होती हैं।
इसे विसर्जित कर देने पर ही भगवान का अन्तःक्षेत्र में प्रवेश करना—निवास करना सम्भव होता है।
इस छोटे से मानवी अन्तःकरण में दो के निवास की गुंजाइश नहीं है।
पूरी तरह एक ही रह सकता है।
दोनों रहे तो लड़ते-झगड़ते रहते हैं
और अंतर्द्वंद्व की खींचतान चलती रहती है।
भगवान् को बहिष्कृत करके
पूरी तरह ‘अहंमन्यता’ को प्रबल बना लिया जाय
तो मनुष्य दुष्ट दुर्बुद्धि क्रूर-कर्मा असुर बनता है।
अपनी कामनाएं—
भौतिक महत्वाकांक्षायें ऐषणायें समाप्त करके ईश्वरीय निर्देशों पर चलने का संकल्प ही आत्म समर्पण है।
यही शरणागति है।
यही ब्राह्मी स्थिति है।
इसे प्राप्त होते ही मनुष्य में देवत्व का उदय होता है,
तब ईश्वरीय अनुभूतियां चिन्तन में उत्कृष्टता और
व्यवहार में आदर्शवादिता भर देती हैं।
ऐसे ही व्यक्ति महामानव ऋषि,
देवता एवं अवतार के नाम से पुकारे जाते हैं।
‘सो’ में भगवान का शासन आत्म-सत्ता पर स्थापित करने और
‘हम्’ में अहंता का विसर्जन करने का भाव है।
प्रकारान्तर से इसे महान् परिवर्तन का आन्तरिक कायाकल्प का बीजारोपण कह सकते हैं।
सोऽहम् साधना का यही है भावनात्मक एवं व्यावहारिक स्वरूप।
ईश्वर जीव को ऊंचा उठाना चाहता है।
जीव ईश्वर को नीचे गिराना चाहता है।
अस्तु दोनों के बीच रस्साकशी चलती और खींचतान होती रहती है,
न ईश्वर श्रेष्ठ जीवन क्रम देखे बिना सन्तुष्ट होता है
और
न अपनी न्याय-निष्ठा, कर्म-निष्ठा, कर्म-व्यवस्था तथा कथित पूजा पाठ के कारण छोड़ने को तैयार होता है।
वह अपनी जगह अडिग रहता है
और
भक्त को तरह-तरह के उलाहने देने,
शिकायतें करने,
लांछन लगाने की स्थिति बनी ही रहती है।
भक्त ईश्वर को अपने इशारे पर नचाना भर चाहता है।
उससे उचित अनुदान मनोकामनायें पूरी कराने की पात्रता-कुपात्रता परखने की आदत छोड़ देने का आग्रह करता रहता है।
दोनों अपनी जगह पर अडिग रहें,
दोनों की दिशायें एक दूसरे की इच्छा के प्रतिकूल बनी रहें,
तो फिर एकता कैसे हो,
सामीप्य सान्निध्य कैसे सधे?
ईश्वर प्राप्ति की आशा कैसे पूर्ण हो?
इस कठिनाई का समाधान ‘सोऽहम्’ साधना के साथ जुड़े हुए तत्व ज्ञान में सन्निहित है।
दोनों एक-दूसरे से गुंथ जायं—परस्पर विलीनीकरण हो जाय।
भक्त अपने आपको, अन्तःकरण, आकांक्षा एवं अस्तित्व को पूरी तरह समर्पित करदे और उसी के दिव्य संकेतों पर अपनी दिशा धाराओं का निर्धारण करे।
इस स्थिति की प्रतिक्रिया द्वैत की समाप्ति
और
अद्वैत की प्राप्ति के रूप में होती है।
जीव ने ब्रह्म को समर्पण किया है|
ब्रह्म की सत्ता स्वभावतः जीवधारी में अवतरित हुई दृष्टिगोचर होने लगेगी।
समर्पण एक पक्ष से आरम्भ तो होता है,
पर उसकी परिणति उभयपक्षीय एकता में होती है।
यही प्रेम योग का रहस्य है।
यही भक्त के भगवान बनने का तत्वज्ञान है।
ईंधन जब अग्नि को समर्पण करता है,
तो वह भी ईंधन न रहकर आग बन जाता है।
बूंद जब समुद्र में विलीन होती है,
तो उसकी तुच्छता असीम विशालता में परिणत हो जाता है।
नमक और पानी—दूध और चीनी जब मिलते हैं,
तो दोनों की पृथकता समाप्त होकर सघन एकता बनकर उभरती है।
यही है
वेदान्त अनुमोदित जीवन लक्ष्य की पूर्ति
—परम पद की प्राप्ति।
इसी स्थिति को
‘अद्वैत’ कहते हैं।
शिवोहम्—सच्चिदानन्दोहम्—तत्वमसि अयमात्मा ब्रह्म—की अनुभूति
इस सर्वोत्कृष्ट अन्तःस्थिति पर पहुंचे हुए साधक को होती है
इसी को ईश्वर प्राप्ति,
आत्म साक्षात्कार
एवं
ब्रह्म निर्वाण आदि नामों से पूर्णता के रूप में कहा गया है।
शब्दार्थ
व्यापकता मतलब
व्यापक होने की अवस्था, गुण या धर्म; फैलाव; विस्तृतता; विस्तार।
अभिव्यापकता मतलब
. सब ओर फैला हुआ; व्यापक; सर्वव्याप्त; सर्वसमावेशी 2. अच्छी तरह व्याप्त होने या करने वाला।
विश्वव्यापक मतलब
- विश्व में व्याप्त; वैश्विक।
सर्वव्यापक मतलब
जो हर जगह व्याप्त हो; सर्वत्र व्याप्त; विश्वव्यापी।
सर्वव्यापकता मतलब
सर्वव्यापक होने की क्रिया, अवस्था या भाव 2. वह जिसकी व्याप्ति चारों ओर हो।
व्यापक होने की अवस्था, गुण या धर्म; फैलाव; विस्तृतता; विस्तार।
अभिव्यापकता मतलब
. सब ओर फैला हुआ; व्यापक; सर्वव्याप्त; सर्वसमावेशी 2. अच्छी तरह व्याप्त होने या करने वाला।
विश्वव्यापक मतलब
- विश्व में व्याप्त; वैश्विक।
सर्वव्यापक मतलब
जो हर जगह व्याप्त हो; सर्वत्र व्याप्त; विश्वव्यापी।
सर्वव्यापकता मतलब
सर्वव्यापक होने की क्रिया, अवस्था या भाव 2. वह जिसकी व्याप्ति चारों ओर हो।
व्यापक -
किसी विषय या वस्तु काविशेष रूप से प्राप्त ज्ञान 2. विवेक ; बुद्धि ; ज्ञान 3. निशान; चिह्न 4. चैतन्य ।
प्रज्ञान
पंडित ; बुद्धिमान ।, अनुभव , समझदारी , सहज बुद्धि और आत्मज्ञान का उपयोग करते हुए सोचने और कार्य करने की क्षमता प्रज्ञान (विजडम) कहलाती है।
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