प्रज्ञानं ब्रह्म - "वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है"
( ऐतरेय उपनिषद 1/2 - ऋग्वेद)
अर्थात
तुम्हारी बुद्धि की गहेराई में जो बैठा है,
वो परब्रम्ह परमात्मा है…उस परमात्मा
का ज्ञान
अथवा उस परमात्मा में शांत होना,
उस परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए कर्म करना
सारे विकासों
की कुंजी है..सारे सुखों की कुंजी है..
वो सारे ज्ञानों का ज्ञान है..सारे मंगलों का
मंगल है.
"प्रज्ञानं ब्रह्म" भारत के पुरातन हिंदू शास्त्र 'ऋग्वेद' का 'महावाक्य' है, जिसका शाब्दिक अर्थ है -
"ज्ञान ही ब्रह्म है"।
चार वेदों में चार महावाक्य है।
इस महावाक्य का अर्थ है- 'प्रकट ज्ञान ब्रह्म है।' वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म जानने योग्य है और
ज्ञान गम्यता से परे भी है। वह विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप और अविनाशी रूप है।
वही सत्य, ज्ञान और सच्चिदानन्द-स्वरूप ध्यान करने योग्य है।
वह सर्वत्र अखण्ड विग्रह-रूप है। वह हमारे चित और अहंकार पर
सदैव नियन्त्रण करने वाला है। जिसके द्वारा प्राणी देखता,
सुनता, सूंघता, बोलता और स्वाद-अस्वाद का
अनुभव करता है, वह प्रज्ञान है।
जो सभी में समाया हुआ है।
वही 'ब्रह्म' है।
यह मंत्र जगन्नाथ धाम या गोवर्धन मठ का भी महावाक्य है, जो कि पूर्व दिशा में स्थित भारत के चार धामों में से एक है।
शुकरहस्योपनिषद
इस कृष्ण यजुर्वेदीयउपनिषद में महर्षि व्यास जी के आग्रह पर
भगवान शिव ने उनके पुत्रशुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश
'ब्रह्म रहस्य' के रूप में देते हैं।
वे चार महावाक्य-
ॐ अहं ब्रह्मास्मि,
ॐ तत्त्वमसि और
ॐ अयमात्मा ब्रह्म हैं।
ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म
प्रज्ञा रूप (उपाधिवाला) आत्मा ब्रह्म है...
यह महावाक्य ऋग्वेद के ऐतरेय उपनिषद में उद्धृत किया गया है ,
जिसे ' लक्षणा वाक्य ' भी कहा गया है।
इसका संबंध ब्रह्म की चैतन्यता से है ,
प्रज्ञानम् ब्रह्म का अर्थ हुआ कि जो कुछ है ब्रह्म हैं, सत्य वो तुमसे अलग नहीं।
तुम्हारे ही बोध का नाम ब्रह्म है। तो तुम्हें किसी ईश्वर की उपासना की जरूरत नहीं,
तुम्हें ब्रह्म विद्या की भी जरूरत नहीं, तुम्हें बस अपने ध्यान की जरूरत है,
क्योंकि ध्यान की ही निष्पत्ति है प्रज्ञान।
जहाँ ध्यान है वहाँ से प्रज्ञान है।
तो ध्यान क्या हुआ?
ध्यान है मन और आत्मा के बीच का सेतु
उसके एक सिरे पर विचार है, दूसरे सिरे पर प्रज्ञान है।
उपनिषद्
बोध और ज्ञान तो है ही वो जो मनातीत है जो संख्याओं के पार है, वही प्रज्ञान है।
ज्ञान का इतना सूक्ष्म हो जान कि ज्ञान विलुप्त ही हो जाए, प्रज्ञान है और वही ब्रह्म है। जब ज्ञान विलुप्त होता है तब जो चमकता है वो ब्रह्म है।
इस अवस्था में प्रकृति अपने असली स्वरूप (कारणावस्था) में होती है और अव्यवहार्य दशा में रहती है ।
जीव प्रलय में शरीर रहित होने से सुषुप्ति की सी, एक सुषुप्तावस्था में, रहते हैं और उनका, किसी प्रकार का शारीरिक व्यवहार नहीं होता, इसीलिए उन्हें, इस उपनिषद् वाक्य में ‘‘न, मिषत्’’ अर्थात् आँख खोलने, बन्द करने (पलकों के झपकाने आदि) का व्यवहार न करने वाला कहा गया है ।
तात्पर्य यह कि चेतना का शारीरिक व्यवहार करने वाला कोई जीव भी उस (महाप्रलय) अवस्था में नहीं होता ।
मुक्त जीव अवश्य रहते हैं और अपने आनन्द के उपभोग आदि का सभी व्यवहार करते हैं, परन्तु वे भी प्रत्येक प्रकार के शरीरों से रहित होते हैं, इसलिए ‘‘न मिषत्’’ शब्दों के अन्दर ही आ जाते हैं ।
उस प्रलयावस्था में मौजूद परमात्मा ने ईक्षण किया कि जगत को रचूं । यह ईक्षण नैमित्तिक (किसी निमित्त से) नहीं होता अपितु स्वाभाविक रीति से होता है क्यों कि ईश्वर का ज्ञान, बल, क्रिया सभी स्वाभाविक हैं ।
सृष्टि और प्रलय का चक्र नित्य है ।
प्रलय के समाप्त होने पर,
अनादि काल से,
नित्य समय पर, यह ईक्षण, स्वभावतः ईश्वर में हो जाया करता है ।
ईश्वर ने -
अम्भस्, (सूर्य),
मरीचीः (सूर्य की किरणें),
मर (मरण अर्थात पृथ्वी),
आपः (जल), आदि चार लोकों को रचा
‘‘अम्भस्’’ सूर्य (अपनी किरणों के द्वारा जलों को खींचता है इसलिए वही) अम्भस् है ।
मरीचि किरणों को कहते हैं उनका आना - जाना आकाश द्वारा ही होता है इसलिए मरीचि से अन्तरिक्ष अभिप्रेत है ।
मर - मरण - धर्मा प्राणियों के रहने से ‘‘मर’’ नाम पृथिवी का है ।
आपः(जल) - नीचे की ओर बहाव की प्रवृत्ति रखने से जल के पृथिवी के नीचे होने की बात कही गई है ।
अर्थात् पहले सूर्य,
अन्तरिक्ष,
पृथिवी और
जल उत्पन्न किये गये ।
जितने प्रकाशक लोक हैं वे सभी सूर्य हैं
और जितने अप्रकाशक लोक हैं वे सब पृथिवी के नाम से कहे जाते हैं ।
दोनों के मध्य में अन्तरिक्ष (आकाश - ईथर) का होना स्वाभाविक ही है ।
जल जब तक सूक्ष्म (वाष्प के रूप में) रहता है, पृथ्वी से पहले पैदा हो जाता है, परन्तु वर्तमान रूप में जल जिसे सब पीते हैं, पृथ्वी के उत्पन्न होने के बाद ही आता है । इसीलिए उसे पृथ्वी के बाद चौथा लोक कहा गया है ।
ये आकाश, जल और पृथ्वी के नाम केवल उपलक्षण के तौर पर लिये गये हैं ।
तात्पर्य पंच्चभूतों के व्यक्त (प्रकट) रूप ग्रहण करने से है ।
विराट् :-
वास्तव में एक कल्पित और आंलकारिक व्यक्ति है ।
पंच्चभूतों से उत्पन्न , सूर्य चन्द्रादिमय जगत् का समष्टि नाम विराट् है ।
उस विराट् पुरूष के लिए अनेक जगह वर्णित है कि सूर्य, चन्द्र उसकी आँखें हैं ।
पृथ्वी उसका पांव है और अन्तरिक्ष उदरस्थानी है, इत्यादि
तज्ज (उसी से यह ब्राह्मण पैदा होता है)
तल्ल (उसी में अन्त में लीन हो जाता है) और
तदन् (उसी स्थितिकाल में चेष्टा करता) है ।
विराट् पुरूष को रचयिता ने तपाया है अर्थात् ईश्वर प्रदत्त गति ने उसके भीतर काम किया।
विराट् के अभितपित होने से उसका मुँह खुला हैं |
जैसे :- अण्डा फटता है,
मुख से वाणी
और वाणी से
अग्नि (निकली) (मुखात्, वाक्, वाचः, अग्निः),
नासिका के दो छिद्र निकले, (नासिके, निरभिद्येताम्) ,
नासिका से प्राण
और प्राण से वायु (प्रकट हुआ) । (नासिकाभ्याम्, प्राणः, प्राणात्, वायुः),
आँखें (निकलीं) (अक्षिभ्याम्, चक्षुः , चक्षुषः, आदित्यः),
आँखों से चक्षु (देखने की शक्ति) ,
और चक्षु से सूर्य (निकला),
कान खुले, (कर्णौ , निरभिद्येताम्),
कानों से श्रोत्र (श्रवण शक्ति) (कर्णाभ्याम्, श्रोतम्, श्रोत्राद् दिशः)
और श्रोत्र से दिशाएं (प्रकट हुईं),
त्वचा निकली, (त्वक्, निरभिद्यत)
त्वचा से लोम (त्वचः लोमानि, लोमभ्य ओषधिवनस्पतयः)
और लोम से औषधि
और वनस्पति (उत्पन्न हुईं)
हृदय खुला (हृदयम् , निरभिद्यत)
हृदय से मन (हृदयात्, मनः, मनसः, चन्द्रमा)
और मन से चन्द्रमा (प्रकट हुआ),
नाभि खुली (नाभिः निरभिद्यत),
नाभि से अपान (नाभ्याः, अपानः, अपानात्, मृत्युः)
और अपान से मृत्युः (व्यक्त हुई),
प्रजननेन्द्रिय निकली (शिश्नम्, निरभिद्यत, शिश्नात्, रेतः रेतसः, आपः)
और प्रजननेन्द्रिय से वीर्य
और वीर्य से जल प्रकट हुआ ।
व्याख्या - ईश्वरप्रदत्त गति से जड़
और जड़ से गति -
शून्य प्रकृति, विचेष्टित हुई
और उसके विचेष्टित होने से लोक प्रकट हुए
और लोकपालों (मनुष्यों) के उत्पन्न करने के लिए विराट् पुरूष उत्पन्न हुआ ।
अब इस खण्ड में यह दिखाया गया है कि
उस विराट् पुरूष के किस प्रकार इन्द्रिय - छिद्र उत्पन्न हुए
और किस प्रकार उन छिद्रों से इन्द्रिय और मन
और किस प्रकार उन इन्द्रियों और मन से स्थूल - भूतस्थ और अग्नि आदि उत्पन्न हुए ।
विराट् पुरूष के इन्द्रिय-छिद्रों से उत्पन्न हुए विशेष इन्द्रिय छिद्र विराट् के शरीर में स्थूल जगत् में
१ मुख वाणी अग्नि
२ नासिका प्राण वायु
३ अक्षिणी (दोनों चक्षु आदित्य आँखों के छिद्र)
४ कर्ण छिद्र श्रोत्र दिशा
५ त्वक् लोम औषधि, वनस्पति
६ हृदय मन चन्द्रमा
७ नाभि अपान मृत्यु
८ शिश्न वीर्य जल नोट - उपनिषद् का उपर्युक्त कथन प्रायः वेदानुसार ही है
ये अग्नि आदि देवता रचे जाने पर इस बड़े समुद्र (आकाश) में पहुँचे ।
विराट् पुरूष को भूख - प्यास से युक्त किया । ( आत्मा - परमेश्वर ने)
अग्नि आदि देवता इस ईश्वर (आत्मा ) से बोले कि हमारे लिए स्थान बतलाओ, जिसमें ठहरकर हम अन्न खायें ।देवताओं के लिए गाय लाई गईं,
देवता बोले निश्चय हमारे लिए यह काफी नहीं है ।
देवताओं लिए (तब) घोड़ा लाया गया
देवता बोले हमारे लिए यह भी काफी नहीं ।
देवताओं लिए तब मनुष्य लाया गया ।
देवता बोले अहो यह अच्छा बना है ।
निस्सन्देह मनुष्य ही बहुत अच्छा बना है ।
देवों को ईश्वर (आत्मा) ने कहा
यथास्थान (इस मनुष्य में) प्रवेश करो ।
विराट् पुरूष के लिए इन्द्रियों से, अग्नि आदि देव, उत्पन्न होकर ब्रह्माण्ड में दाखिल हुए और उन्होंने अपने लिए, ईश्वर से निवास के लिए स्थान के आयोजना की मांग की और गाय और घोड़े को लाये जाने पर, उन देवों ने अपने ठहरने के लिए , उन्हें पसन्द नहीं किया । तब मनुष्य लाया गया और उसे उन्होंने पसन्द किया । क्यों मनुष्य को पसन्द किया ? कारण स्पष्ट है कि वाणी आदि इन्द्रियों का, जितना उत्तम व्यवहार इस (मनुष्य) योनि में हो सकता है वैसा नीचे की अन्य योनियों में नहीं हो सकता । इसीलिए मनुष्य इस सृष्टि में सर्वोत्तम प्राणी माना जाता है ।
अर्थ अग्नि वाणी होकर मुख में प्रविष्ट हुआ । - (अग्निः, वाक् भूत्वा, मुखम्, प्राविशत्)
वायु प्राण होकर नासिका में दाखिल हुआ । - (वायु, प्राणः, भूत्वा, नासिके प्राविशत्)
सूर्य चक्षु होकर आँखों में पहुँचा । -(आदित्यः, चक्षुः, भूत्वा, अक्षिणी प्राविशत्)
दिशायें श्रोत्र होकर कानों में पहुँचीं । - (दिशः , श्रोत्रम्, भूत्वा, कर्णौ, प्राविशन्)
औषधि और वनस्पति लोम होकर त्वचा में प्रविष्ट हुईं । - (ओषधिवनस्पतयः, लोमानि, भूत्वा त्वचम् प्राविशन्)
चन्द्रमा मन होकर हृदय में पहुंचा । -(चन्द्रमाः मनः, भूत्वा, हृदयम् प्राविशत्)
मृत्यु अपान होकर नाभि में दाखिल हुआ । -(मृत्युः, अपानः, भूत्वा, नाभिम्, प्राविशत्)
जल वीर्य होकर ज्ञानेन्द्रिय में प्रविष्ट हुए । -(आपः, रेतः, भूत्वा, शिश्नम्, प्राविशन्)
व्याख्या - प्रकार मनुष्य की इन्द्रियों की उत्पत्ति का कारण बने विराट् पुरूष की इन्द्रियों से मनुष्य की विशेष उत्पत्ति हुई .
वाणी अग्नि वाणी मुख में प्रविष्ट हुई
प्राण वायु प्राण नासिका में प्रविष्ट हुआ
चक्षु आदित्य चक्षु अक्षिणी में प्रविष्ट हुई
श्रोत्र दिशा श्रोत्र कर्णों में प्रविष्ट हुए
लोम त्वक् औषधि तथा वनस्पति लोम त्वचा में प्रविष्ट हुए
मन चन्द्रमा मन हृदय में प्रविष्ट हुआ
अपान मृत्यु अपान नाभि में प्रविष्ट हुआ
(शिश्न) वीर्य जल रेत (शिश्न) में प्रविष्ट हुआ
विराट् पुरूष की इन्द्रिय छिद्रों से उसकी जो - जो इन्द्रियाँ उत्पन्न हुई थीं और उनसे जिस - जिस भूत की उत्पत्ति हुई थी, उन भूतों ने मनुष्य शरीर में उन्हीं - उन्हीं इन्द्रियों को उत्पन्न किया और स्वंय वे भूत मनुष्य शरीरान्तर्गत उन्हीं - उन्हीं इन्द्रिय छिद्रों में समाविष्ट हुए जिनसे विराट् पुरूष के शरीर में उनकी उत्पादक इन्द्रियां उत्पन्न हुईं थीं ।
इन भूतों ने मनुष्य शरीर में जिन - जिन इन्द्रियों को उत्पन्न किया था उन - उन इन्द्रियों में उनके उत्पादक भूतों का प्रभाव मौजूद पाया जाता है ।
इसी को स्पष्ट करने के लिए कुछ बातें यहाँ अंकित की जाती हैं -
(१) अग्नि - वाणी तथा मुख - वाणी में तेजस्विता का होना, वाणी की विशेषता समझी जाती है ।
तेज अग्नि ही से उत्पन्न होता है ।
इसलिए वाणी में अग्नि के प्रभाव का होना स्पष्ट है ।
मुख में भी अग्नि का प्रभाव मौजूद है ।
इस सम्बन्ध में दो बातों को ध्यान में रखने की जरूरत है - मनुष्य जब भोजन करता है तो उस भोजन के साथ मुखस्थ अग्नि अव्यक्त रूप में मेदे में पहुंचती है और मेदे में कतिपय रासायनिक क्रियाओं के होने का, जो स्वभावतः हुआ करती हैं, यह फल है कि वह अव्यक्त अग्नि व्यक्त होकर जठराग्नि के रूप में परिवर्तित होकर भोजन के पचाने का कारण बना करती हैं ।
(२) मृत्यु के समय जब मनुष्य का सारा शरीर ठण्डा हो जाता है तब भी मुख में गर्मी बाकी रहा करती है और इसलिए जब बगल में थर्मामीटर नहीं लगता तब भी मुख में लग जाया करता है । तात्पर्य यह है कि अन्तिम समय आने पर मुंह में अन्त तक गरमी बनी रहा करती है । सबसे अन्त में वह गरमी मुख से निकला करती है ।
वायु - प्राण और नासिका -प्राण वायु का ही एक अंश होता है, यह तो स्पष्ट ही है ।
(३) आदित्य - चक्षु और अक्षिणी (चक्षु गोलक) - आदित्य के प्रकाश ही से आँखों में प्रकाश आता है, यह बात किसी से भी छिपी नहीं है ।
(४) दिशा - श्रोत्र और कर्ण - दिशा का नाम आकाश का है । शब्द आकाश का गुण है और आकाश (ईथर) के द्वारा ही सुना जाया करता है । इसीलिए दिशा का श्रोत्रेन्द्रिय से सम्बन्ध भी स्पष्ट ही है ।
(५) औषधि और वनस्पति - लोम और त्वचा - औषधि गेहूं आदि को कहते हैं । जो एक बार फल देकर सूख जाया करती हैं । अन्यों को वनस्पति और वृक्ष कहते हैं । औषधि और वनस्पति के सेवन ही से शरीर और त्वचा बना करती है और त्वचा के बन जाने पर उसमें त्वगिन्द्रियत्व आया करता है ।
(६) चन्द्रमा - मन और हृदय - जिस प्रकार मुख का सम्बन्ध अग्नि से है उसी प्रकार हृदय का सम्बन्ध शीतलता से है । हृदय के शान्त होने को ही हृदय का ठण्डा होना कहते हैं । इसलिए चन्द्रमा की शीतलता हृदय के आह्लाद का कारण हुआ करती है ।
(७) मृत्यु - अपान और नाभि - अपान का मुख्य केन्द्र नाभि है, परन्तु उसका कार्य मल -मूत्रेन्द्रियों से सम्बन्धित है । नाभि शरीर का केन्द्र है । गर्भ में बालक नाभि के द्वारा ही पोषण - रस ग्रहण किया करता है । यदि शरीर से ठीक रीति से मल न निकलता रहे तो वह मनुष्य की मृत्यु का कारण हो जाया करता है । इसलिए प्राण के अन्य विभागों की तरह अपान का स्थान भी उनमें महत्त्वपूर्ण है । इसके सिवा अपान यहाँ उपलक्षण के तौर पर है, तात्पर्य सभी प्राणों से है । प्राण के रहने से मनुष्य जीवित रहा करता है । प्राण का मनुष्य के शारीरिक संगठन में इतना महत्त्व है कि उसका नाम ही प्राणी रखा गया है । आत्मा को सूक्ष्म शरीर के साथ एक शरीर से निकालकर अपेक्षित स्थान (योनि) में पहुंचाना प्राण ही का काम है ।
(८) जल रेत और शिश्न वीर्य का रूप जलीय ही है । उसमें अधिकांश भाग जल ही होता है । यह स्पष्ट ही है ।
परमेश्वर (आत्मा) को
भूख प्यास ने कहा - हम दोनों के लिए स्थान बतलाओ
इन दोनों को परमेश्व (आत्मा) ने कहा- इन्हीं देवताओं में तुम दोनों को साथी बनाता हूँ ।
इन्हीं में हिस्सेदार बनाता हूँ । इसलिए जिस किसी देवता के लिए हवि ग्रहण की जाती है, उसमें भाग लेने वाली भूख - प्यास होती है ।
व्याख्या - संसार का समस्त काम चलाने वाली दो शक्तियाँ हैं जिन्हें भूख और प्यास कहते हैं । ये ही संसार काम करने का कारण हुआ करती हैं ।
प्राणी, अप्राणी सभी में इनका साम्राज्य है ।
मनुष्य के अन्दर, इन्द्रियों में, जो दिव्य आग्नेय आदि शक्तियाँ हैं,
उन सभी में और उनसे बाहर जो वानस्पत्य आदि जगत् है उन सब में, भूख - प्यास काम करती हैं ।
खाद्य और पेय पदार्थ सब के पृथक् पृथक् हैं ।
मनुष्य को खाने - पीने के लिए अन्न और जल की आवश्यकता है, वृक्षादि के लिए खाद और जल अपेक्षित होते हैं । नेत्रादि के लिए रूप,
रस आदि अन्न और जल का काम देते हैं ।
अग्नि के लिए हवि, समिधा आदि की आवश्यकता होती है ।
निदान जगत् में कोई वस्तु नहीं, जिसको किसी न किसी रूप में भूख - प्यास की जरूरत न पड़ती हो ।
ईश्वर (आत्मा) ने देखा कि यह लोक और लोकपालक हैं,
अन्न इनके लिए बनाऊं ।
ईश्वर जल को तपाया
जल तपने से मूर्ति उत्पन्न हुई,
जो मूर्ति उत्पन्न हुई , वही अन्न है ।
उस रचे हुए अन्न ने परे हट जाने की चेष्टा की , तो अन्न को उसको वाणी से पकड़ना चाहा
उसको वाणी से पकड़ने में समर्थ न हुआ ।
अन्न इस वाणी से पकड़जाता तो अन्न का नाम लेकर ही मनुष्य तृप्त हो जाता ।
उसको प्राण से पकड़ना चाहा, उसे प्राण से न पकड़ सका,
वह जो इसको प्राण से पकड़ लेता तो अन्न को सूंघकर ही तृप्त हो जाता ।
उस अन्न को आँख से पकड़ना चाहा, उसको आँख से ग्रहण नहीं कर सका,
वह उसे आँख से ग्रहण कर लेता तो अन्न को देखकर ही तृप्त हो जाया करता ।
उसको कान से ग्रहण करना चाहा परन्तु उसे कान से ग्रहण नहीं कर सका,
यदि वह इसको श्रोत्र से ग्रहण कर सकता तो अन्न का नाम सुनकर ही तृप्त हो जाता ।
उसको त्वचा से ग्रहण करना चाहा परन्तु उसे त्वचा से ग्रहण नहीं कर सका,
उसे त्वचा से ग्रहण कर सकता तो अन्न को छूकर ही तृप्त हो जाता ।
उसे मन से पकड़ना चाहा परन्तु उसे मन से पकड़ न सका,
यह जो उसे मन से पकड़ लेता तो अन्न का ध्यान करके ही तृप्त हो जाता ।
उसको जननेन्द्रिय से पकड़ना चाहा परन्तु वह उसे जननेन्द्रिय से पकड़ न सका,
वह उसे शिश्न से पकड़ लेता तो अन्न को (वीर्य की तरह) त्यागकर ही तृप्त हो जाया करता ।
अपान से ग्रहण करना चाहा उसने तो
अन्न को पकड़ लिया
वायु (अपान) अन्न को ग्रहण करने वाला है ।
अथवा वह वायु ही आयु है ।
- व्याख्या- उसी ईश्वर (आत्मा) ने जब लोकों और लोकपालों को बना हुआ देखा तब उसने इनके लिए भोज्य (अन्न) बनाने का विचार किया और उन्हीं जलों को, जिसका इससे पहले उल्लेख हो चुका है, संचालित किया । उससे अन्न पैदा हुआ । अब लोकपाल (मनुष्य) किस प्रकार उस अन्न को ग्रहण करें ।
उस अन्न को वाणी, प्राण (नासिका), चक्षु, श्रोत्र, त्वचा, मन और शिश्न से ग्रहण करना चाहा परन्तु इनके द्वारा यह ग्रहण नहीं किया जा सका ।
तब अपान द्वारा उसे ग्रहण करना चाहा परन्तु यहाँ अपान समस्त प्राणों के प्रतिनिधि के रूप में है और उपलक्षण के तौर पर उसका नाम लिया गया है, तात्पर्य समस्त प्राण वायुओं से है ।
अपान ने उसे ग्रहण कर लिया । क्यों अपान अथवा प्राणों ने उसे ग्रहण कर लिया ?
इसका उत्तर यह है कि अन्न (भोजन) जब कण्ठ में पहुँचता है तब उसे यह प्राण (उदान) ही कण्ठ से उदर में ले जाता है, इसलिए स्पष्ट है कि भोजन का ग्रहण करना प्राण वायु ही का काम है ।
‘वी’ धातु जिससे वायु बनता है उसके अर्थ भी ग्रहण करने और खाने के हैं । इसलिए वहाँ उचित रीति से वायु को ‘‘अन्नायु’’ कहा गया है आयु शब्द के अर्थ भी वायु के हैं, अतः अन्नायु का अर्थ है ‘‘अन्न का ग्रहण करने वाला’’ वायु ।
ईश्वर (आत्मा) ने देखा कि
कैसे यह (इन्द्रियमय शरीर)
मेरे बिना (जीव के बिना)
रह सकता है ।
ईश्वर ने सोचा कि किस (मार्ग) से प्रवेश करूं ?
यदि वाणी से (बिना मेरे - आत्मा के)
बोल लिया गया
यदि प्राण (नासिका ने सूंघ लिया)
यदि आँखों से देख लिया गया
यदि कान से सुन लिया गया
यदि त्वचा से स्पर्श कर लिया
यदि मन से संकल्प कर लिया गया,
यदि अपान ने अपना काम कर लिया,
यदि प्रजनेनन्द्रिय ने (वीर्य) छोड़ दिया
तब मैं क्या हूं ? (अथ, कः, अहम्, इति)
ईश्वर इनकी सीमा को फाड़कर इनके द्वारा प्रविष्ट हुआ ।
ईश्वर द्वार ‘विदृति’ नाम वाला है,
वह यह (द्वार) आनन्द की जगह है ।
आत्मा के रहने के तीन स्थान है-,
और तीन ही स्वप्न हैं,
यह स्थान है,
यह स्थान है,
यह स्थान है ।
उत्पन्न हुए जीव ने भूतों को देखा
क्या यहाँ अन्य से बोले ?
आत्मा ने व्यापक पुरूष (परमात्मा ) को देखा
इसलिए उस का इदन्द्र नाम है,
इदन्द्र यह नाम है ।
इसको इदन्द्र होते हुए परोक्ष से इन्द्र कहते हैं,
देव परोक्षप्रिय होते हैं|
व्याख्या - इस उपखण्ड में कतिपय आवश्यक बातें विस्तृत व्याख्या चाहती हैं उनमें से प्रत्येक का विवरण नीचे दिया जाता है ।
(१) इन्द्रियमय शरीर जड़ है ।
अन्तःकरण चतुष्टय भी जड़ है ।
शरीर के अन्दर आत्मा के रहने और उसकी चेतना के प्रकाश से प्रकाशित होने से समस्त अन्तः बहिःकरण , काम किया करते हैं ।
रसायन शास्त्र में जिस प्रकार एक वस्तु के उपस्थित होने मात्र से अन्यान्य अनेक वस्तुएँ मिल जाती हैं
और जिस प्रकार उस मिश्रण से वह पहली वस्तु सर्वथा अलग ही रहा करती है ।
इसी प्रकार आत्मा के शरीर में होने से,
समस्त शरीरावयव, रक्त संचार, पाचन क्रिया आदि का कार्य स्वयमेव करने लगते हैं,
अवश्य इन्द्रियाँ जो इरादे का काम करती हैं, उस इरादे का प्रारम्भ जीवात्मा ही से हुआ करता है ।
इसीलिए यहाँ जीव सोचता है कि यदि बिना मेरे ही समस्त इन्द्रियां अपना - अपना व्यापार कर सकती हैं,
तो शरीर में मेरा होना न होना एक जैसा है ।
परन्तु बिना जीव के शरीर का कोई भी व्यापार चाहे वह इच्छित हो या अनिच्छित , नहीं हो सकता,
इसीलिए आवश्यकता है कि शरीर में आत्मा रहे ।
(२) इसी बात को दृष्टि में रखकर, आत्मा ने शरीर की सीमा का नाम ‘‘विदृति’’(फाड़ा या छिद्र किया हुआ) है
वह प्रवेश द्वार मूर्धा का अन्तिम (ब्रह्मरन्ध्र) चक्र समझाजाता है,
इसी द्वार का दूसरा नाम ‘‘नान्दन’’ (आनन्ददायक) है ।
(क) आत्मा से अभिप्राय क्या होता है ।
शिर की राह से जो आत्मा शरीर में प्रविष्ट होता है,
उस आत्मा से अभिप्राय परमात्मा है या जीवात्मा ।
विचार करने से यह बात साफ तौर से प्रकट होती है कि
इस खण्ड में प्रयुक्त ‘आत्मा’ शब्द ईश्वर और जीव दोनों के लिए प्रयुक्त हुआ करता है ।
इस बात को प्रायः सभी जानते हैं ।
जिस शरीर में आत्मा के प्रविष्ट होने का प्रश्न है ,
यह वह शरीर नहीं जिसे विराट् कहते हैं
और जो अव्याकृत प्रकृति आपः से बनाया गया था
और जिसमें उसका बनाने वाला आत्मा परमात्मा प्रविष्ट समझा जाता है,
क्योंकि उसी का तो यह सूर्य और चन्द्ररूपी नेत्र वाला, विस्तृत (विराट् रूपी कल्पित) शरीर, समझा और माना जाता है । अपितु
यह तो मनुष्य का शरीर है ।
इस मनुष्य शरीर में आत्मा और परमात्मा दोनों प्रकाश और छाया के सदृश प्रविष्ट हैं ।
और दोनों के प्रविष्ट होने ही से शरीर का व्यापार चला करता है ।
प्राणियों (मनुष्यों) के शरीर में जीवात्मा ‘‘अभिमानी जीवात्मा’’ संज्ञक होता है
और इसीलिए वह शरीर का कारोबार चलाने में मन और इन्द्रिय के साथ हो जाया करता है
और ये तीनों ही मिलकर कर्ता और भोक्ता हुआ करते हैं ।
परन्तु परमात्मा इन शरीरों में अपने व्यापकत्व से अनुशयी आत्मा के तौर पर रहा करता है,
इसीलिए इन शरीरों में उसे अनुप्रविष्ट कहा जाया करता है ।
तात्पर्य इन सबका यह है कि जहाँ मनुष्य शरीर में शिर के मार्ग से आत्मा का प्रवेश वर्णन किया गया है,
वहाँ आत्माके प्रवेश का अभिप्राय यह है कि अभिमानी आत्मा के तौर पर जीव ने और अनुशयी आत्मा के तौर पर परमात्मा ने अनुप्रवेश किया
अन्यथा देखने, सुनने, खाने, पीने, गर्भाधान करने आदि समस्त इन्द्रिय विषयों का अभिमानी आत्मा परमात्मा को ही मानना पड़ेगा
और यदि ऐसा माना तो इससे परमात्मा के प्रामाण्य में धब्बा लगता है ।
दोनों का प्रवेश मानने ही से इस खण्ड के अन्तिम भाग की संगति भी लग सकती है ।
अन्यथा उस उत्पन्न हुए जीव ने व्यापक ब्रह्म को देखकर जो यह कहा कि
‘‘इदम् अदर्शम् अहो ।’’ (अहो इस (ब्रह्म) को देखा) इत्यादि, वेवाक्य एक आत्मा अपने ही लिए तो नहीं कह सकता । फिर यहाँ तो देखने वाले को ‘उत्पन्न हुआ - (जीव)’
और जिसे देखा उसे स्पष्ट शब्द में - ‘ब्रह्म’ कहा गया है ।
(ख) जीव शरीर में कब प्रविष्ट होता है ?
इसी उपनिषद् में आगे बतलाया गया है कि जीव प्रथम पिता के शरीर में आकर पिता के वीर्य के साथ, माता के शरीर में जाता है और वह वीर्य तथा रक्त और तीसरा जीव तीनों जब मिल जाते हैं ।
तब इसी का नाम गर्भ की स्थापना है,
यदि ऐसा न होता अर्थात् रज और वीर्य के साथ जब जीव शामिल न होता तो गर्भ स्थापित नहीं हो सकता था ।
संसार में चीजें दो प्रकार से बढ़ती हैं -
(१) एक बाहर से जैसे पत्थर, लोहा, चांदी, सोना आदि और
(२) दूसरे भीतर से जैसे वृक्ष, पशुओं और मनुष्यों के शरीर आदि ।
इन दोनों प्रकार की वस्तुओं की बढ़ोतरी में यह अन्तर क्यों है ?
इसका कारण जीव का होना और न होना है ।
जिनमें जीव नहीं होता वे वस्तुएं बाहर से बढ़ती हैं
और जिनमें जीव होता है वे भीतर से बढ़ा करती हैं ।
गर्भ भीतर से बढ़ा करता है इसलिए मानना पड़ता है कि उसके भीतर जीव है ।
अन्यथा वह न बढ़ सकता और न स्थापित हो सकता था,
केवल रजोवीर्य के मेल से गर्भ स्थापित नहीं हुआ करता ।
यदि जीव शरीर में प्रारम्भ से ही आ जाता है,
तब यहाँ यह क्यों कहा गया कि शरीर की सीमा फाड़कर शरीर में प्रविष्ट हुआ ?
इसका उत्तर यह है कि समस्त प्रकरण,
जो इन्द्रियों द्वारा अन्न ग्रहण करने से प्रारम्भ होता है,
आलंकारिक है ।
अन्यथा आँख, कान आदि किस प्रकार अन्न ग्रहण करने का यत्न कर सकते थे
और उनकी असफलता पर अपान ने किस प्रकार अन्न ग्रहण कर लिया इत्यादि ।
शरीर का काम जीव के बिना चल नहीं सकता था,
इसलिए अलंकार द्वारा ही उसका प्रवेश दिखला दिया गया
और मूर्धा के द्वारा प्रवेश दिखलाने का एक कारण है ।
एक दूसरी उपनिषद् में एक जगह कहा गया है कि ‘शरीर में हृदय की १०१ नाडि़यों में से एक (सुषुम्णा) मूर्धा में जाकर समाप्त होती है ।
उसकी समाप्ति ही के स्थान का नाम ब्रह्मरन्ध्रचक्र है ।’
जब जीव का मोक्ष होता है तब वह इसी मार्ग से शरीर से निकलता है
और जब उसकी अन्य (आवागमन) से (सम्बन्धित) गतियाँ होती हैं,
तब यह अन्य मार्गों से, शरीर से निकला करता है ।
इससे स्पष्ट है कि शरीर में आने के लिए नहीं अपितु शरीर से बाहर निकलने के लिए आनन्द (मोक्ष) दायक मूर्धा - मार्ग है ।
इस उपनिषद् में अलंकार की पूर्ति के लिए जीव का शरीर में प्रवेश दिखलाना था,
इसलिए इसी आनन्दप्रद मार्ग से उसका प्रवेश दिखला दिया ।
(३) शरीर में जीव कहाँ रहता है ?
इसके लिए इस खण्ड में कुछ न कहा जाकर केवल तीन बार यह स्थान, यह स्थान, यह स्थान लिख दिया गया है ।
उसी प्रकरण में तीन स्वप्नों का नाम भी लिया गया है,
जिसका तात्पर्य जागृत,
स्वप्न और
सुषुप्तावस्थाओं से है ।
इसीलिए टीकाकारों ने जागृतावस्था में जीव का दाहिनी आँख में,
स्वप्नावस्था में कण्ठ में (अथवा मन में) और
सुषुप्तावस्था में हृदय में होना बतलाया है ।
शंकराचार्य से लेकर प्रायः सभी टीकाकार इससे सहमत हैं ।
(४) उसी हृदय में होता हुआ जीव, परमात्मा का साक्षात्कार किया करता है ।
इसीलिए खण्ड के अन्त में जीव द्वारा ब्रह्म का साक्षात्कार करने की बात लिख दी है ।
जीव ने जब हृदय में, महान् प्रभु का साक्षात्कार किया तो उसने सोचा कि ‘अहो उसको देखा’ ।
संस्कृत में ये शब्द है - ‘‘इदम्, अदर्शम् अहो’’
इस इदम् में अदर्शम् का द और र जोड़कर एक संक्षिप्त वाक्य (इदम् अदर्शम्) का ‘‘इदन्द्र’’ बना लिया गया
और ईश्वर का यह ‘‘इदन्द्र’’ नाम इसीलिए है कि जीव उसका साक्षात्कार करते हैं ।
उसी इदन्द्र को, परोक्षरूप देने के लिए ‘‘इन्द्र’’ कर दिया गया है,
क्योंकि देवगण (वीर विद्वान्) परोक्षप्रिय हुआ करते हैं ।
पुरूष (पिता के शरीर) में निश्चय पहले से ही यह जीव गर्भ के तौर पर होता है ।
तब यह वीर्य कहा जाता है,
वीर्य मनुष्य के शरीर में समस्त अंगों से तेज के रूप में इकट्ठा हुआ है।
इस (पुत्र के तौर पर उत्पन्न होने वाले) आत्मा को (पुरूष) अपने आत्मा में (धारण करके) रक्षा करता है ।
उस वीर्य को जब पुरूष - पिता,
स्त्री में सींचता है तब वह (पिता) इस (अपने गर्भभूत) को जन्म देता है
यह पिता के वीर्य में स्थित पुत्र के आत्मा का पहला जन्म है ।
वह (गर्भ अर्थात् आत्मा सहित वीर्य) स्त्री का शरीर बन जाता है,
जैसे ;- उसका अपना अंग ।
इसलिए उसको पीड़ा नहीं देता ।
(स्त्री) पुरूष के इस (गर्भस्थ) आत्मा को अपने शरीर में मिला हुआ जानती है ।
स्त्री गर्भ की रक्षा करती हुई (स्वंय) रक्षणीय होती है ।
स्त्री गर्भ को धारण करती है ।
पिता कुमार को जन्म से पहले और बाद भी बढ़ाता है ।
पिता जो जन्म से पहले कुमार को बढ़ाता है,
(रक्षा करता है)
वह मानो अपने ही आप को बढ़ाता है,
इन लोकों के फैलाव के लिए
इसी प्रकार फैले हुए ये लोक हैं ।
यह इसका दूसरा जन्म है ।
पिता का, यह आत्मा ( पुत्र) पुण्य कर्मों के लिए (पिता का) प्रतिनिधि होता है ।
और इस (पिता) का यह (दूसरा) (पिता का असली अभिमानी) आत्मा कृतकृत्य और वृद्ध होकर चल देता है ।
वह यहाँ से जाते ही फिरसे जन्म ले लेता है ।
वह इसका तीसरा जन्म है ।
मैंने गर्भ में रहते हुए ही, इन देवों के समस्त जन्मों को जाना है ।
लोहे के समान सौ (अनेक) पुरों (शरीरों - योनियों) ने मुझे रक्षित रखा,
अब मैं (उस सम्बन्ध से) बाज पक्षी के समान वेग से निकल आया हूँ ।
गर्भ ही में सोए हुए वामदेव ने इस प्रकार कहा
(जैसा वेदमन्त्र में कहा गया है) ।
वह विद्वान् (वामदेव) इस प्रकार शरीर छोड़कर ऊपर उठकर,
उस स्वर्ग - लोक में,
समस्त कामनाओं को पाकर अमर हो गया ।
व्याख्या - इस खण्ड में मनुष्य के तीन जन्मों के होने की बात कही गई है -
पहला जन्म - पिता के शरीरान्तर्गत वीर्य में,
उत्पन्न होने वाले पुत्र का आत्मा प्रविष्ट होता है ।
वीर्य (बीज) चूंकि समस्त शरीर का एकत्रित तेज होता है,
इसीलिए इसमें उसी प्रकार समस्त शरीर का ढांचा मौजूद रहता है जिस प्रकार वटवृक्ष के बीज में वटवृक्ष का समस्त ढांचा ।
जब पिता उसी वीर्य को
(जिसमें उत्पन्न होने वाली सन्तति का आत्मा मौजूद होता है)
माता के शरीर में सिंचित करता है,
तब वह पिता अपने वीर्य में मौजूद आत्मा को जन्म देता है ।
यह उसका पहला जन्म होता है ।
यहाँ यह बात बिलकुल साफ है कि जीव शरीर में शिर फोड़कर नहीं अपितु उसके बनने से भी पहले ही, जब तक उस शरीर के कारणभूत गर्भ का प्रारम्भ माता के शरीर में नहीं होता, उस गर्भ का आधार बनने के लिए पिता के शरीर में आकर उसके वीर्य में ठहरता है ।
दूसरा जन्म - माता गर्भ को अपने शरीर का अंग बनाकर उसकी रक्षा करती है
इसीलिए वह गर्भ माता को भारस्वरूप होकर कष्ट नहीं देता ।
ऐसी गर्भवती माता सभी के लिए रक्षा का पात्र होती है ।
पिता गर्भगत सन्तति की,
उत्पन्न होने से पहले,
जब वह गर्भ रूप में होता है और
उत्पन्न होने के बाद भी रक्षा करता हुआ उसके विकास का कारण बनता है ।
संसार का विस्तार भी इसी प्रकार गर्भ और सन्तति की रक्षा द्वारा हुआ करता है,
इसीलिए इस प्रकार सन्तान पैदा करके उसकी रक्षा करने को, पितृऋण से उऋण होना कहा जाता है ।
पहला जन्म - पिता के शरीरान्तर्गत वीर्य में,
इस प्रकार गर्भ - गत बालक का जन्म लेना ,दूसरा जन्म कहा जाता है ।
तीसरा जन्म - यह उत्पन्न पुत्र, अच्छे और पुण्य कर्मों के लिए पिता का प्रतिनिधि होता है ।
पिता का आत्मा कृतकृत्य होकर शरीर के वृद्ध हो जाने पर संसार से चल देता है और
इस प्रकार शरीर छोड़ते ही वह फिर जन्म ले लेता है ।
यह तीसरा जन्म होता है क्यों कि उस (पिता) के भी पुत्रवत् दो जन्म पहले हो चुके थे । इसी की पुष्टि ऋग्वेद के मन्त्र से की गई है । इस मन्त्र में दो बातें कही गई हैं -
(१) ‘‘गर्भ में रहते हुए मैंने इन देवों के समस्त जन्मों को जान लिया है ।’’
यह बात ऐसे ही जीवात्मा कहते और कह सकते हैं ।
जिन्होंने मिथ्या ज्ञान को दूर करके अपने को समुज्जवल बनाकर प्रत्येक प्रकार की अशुद्धि से अपने को रहित कर लिया है,
देवों से तात्पर्य यहाँ इन्द्रियों का है ।
इन्द्रियों के जन्मों से मतलब अपने ही पूर्व के जन्मों से है ।
संयम करने की योग्यता प्राप्त कर लेने वाले विद्वान् अपने पिछले जन्मों का हाल जान लिया करते हैं,
जैसा योगदर्शन में कहा गया है - ‘‘संस्कारसाक्षात्करणात्पूर्वजातिज्ञानम् ।।’’
(योगदर्शन) अर्थात् संस्कारों के साक्षात् कर लेने से पहले जन्म का ज्ञान हो जाता है ।
(२) दूसरी बात मन्त्र में यह कही गई है - ‘‘लोहे के सौ (अनेक) पुरों (योनियों) ने मुझे उसी तरह से रक्षित रखा ।
(जैसे पिंजड़े में पक्षी रखे जाया करते हैं ।)
अब मैं बाज की तरह वेग से (उन पिंजड़ों से) निकल आया हूं ।’’
मोक्ष तक पहुंचने में यह स्पष्ट ही है कि जीव को अनेक जन्मों के बन्धनों में से गुजरना पड़ता है ।
परन्तु जो उनसे निकलने का यत्न करते हैं ।
वे निकल ही जाया करते हैं,
गर्भ के नौवें मास में जब समस्त ज्ञान और कर्मेन्द्रिय पूर्ण हो जाती हैं,
पूर्व जन्म का (जीव) स्मरण करता है ।
शुभाशुभ कृत कर्मफल को प्राप्त होता है ।
इससे पहले हजारों योनियों में मैं जा चुका हूं ।
अनेक प्रकार के आहार किये,
अनेक माताओं के स्तनों से दूध पिया ।
जन्मा, मरा , फिर बार - बार इसी प्रकार जन्म लिया और परिवार के लिए अच्छे बुरे कर्म किये ।
अब मैं अकेला ही उनसे जल रहा हूं ।
(अर्थात् उनका फल भोग रहा हूं ।)
सुख - भोगी (परिवार वाले) सब चले गये ।
मैं दुःख के समुद्र में डूबा हुआ उससे निकलने का कोई मार्ग नहीं देखता ।
यदि मैं इस योनिबन्धन से छूट जाऊं तो ईश्वर की शरण लूंगा,
जो दुःख विनाशक और मुक्तिदाता है ।
निरूक्त के परिशिष्ट भाग में भी यास्काचार्य ने इस प्रकार के भाव प्रकट किये हैं -
अर्थात् मरकर मैं फिर जन्मा और
जन्म लेकर फिर मरा ।
सहस्त्रों योनियों का मैंने आश्रय लिया ।
अनेक प्रकार के आहारों का भोग किया और
अनेक माताओं के स्तन पीए,
अनेक माता और मित्र देखे ।
गर्भ में नीचे को सिर किए हुए,
दुःखी प्राणी ऐसा सोचता है ।
वह आत्मा कौन है?
जिसकी हम उपासना करते हैं ।
दोनों में से यह कौन आत्मा है ?
जिससे रूप को देखता है, (येन, वा, शब्दम्, शृणोति) या जिससे शब्द सुनता है, (येन, वा , गन्धान्, आजिघ्रति) या जिससे गन्धों को सूंघता है, (येन, वा, वाचम्, व्याकरोति) या जिससे वाणी को व्यक्त करता है, (येन, वा, स्वादु, च, अस्वादु, वा विजानाति) या जिससे स्वादिष्ट और अस्वादिष्ट (पदार्थों) को जानता है ।
(अध्याय :3 खण्डः : 5 श्लोक संख्या :3 )
एष ब्रह्मैष इन्द्र एष प्रजापतिरेते सर्वे देवा इमानि च पञ्च महाभूतानि पृथिवी वायुराकाश आपो ज्योतींषीत्येतानीमानि च क्षुद्रमिश्राणीव । बीजानीतराणि चेतराणि चाण्डजानि च जारुजानि च स्वेदजानि चोद्भिज्जानि चाश्वा गावः पुरुषा हस्तिनो यत्किञ्चेदं प्राणि जङ्गमं च पतत्रि च यच्च स्थावरम् । सर्वं तत्प्रज्ञानेत्रं प्रज्ञाने प्रतिष्ठितं प्रज्ञानेत्रो लोकः प्रज्ञा प्रतिष्ठा प्रज्ञानं ब्रह्म ॥ ३ ॥
जो यह हृदय और मन है,
यह ज्ञान
ये सब प्रज्ञान (चेतना) ही के नाम हैं ।
यह ब्रह्म है,
यह इन्द्र है,
यह प्रजापति है ।
) ये सब देव,
ये पंच्च महाभूत ,
पृथिवी,
वायु,
आकाश,
जल और
अग्नि ये
ये छोटे और मिले - जुले से बीज और
जो अण्डे से उत्पन्न होने वाले,
जेर से उत्पन्न होने वाले (मनुष्यादि) और
पसीने से उत्पन्न होने वाले
और पृथिवी को फोड़कर उत्पन्न होने वाले (वृक्षादि) ,
घोडे़, गाय, पुरूष और हाथी और जो कुछ यह
प्राणी जंगल परद और जो स्थावर,
वे सब प्रज्ञानेत्र हैं । (सर्वम्, तत् प्रज्ञानेत्रम्)
प्रज्ञान में प्रतिष्ठिता हैं (प्रज्ञाने प्रतिष्ठितम्) ।
लोक प्रज्ञानेत्र हैं । (लोकः प्रज्ञानेत्रः)
प्रज्ञान पर प्रतिष्ठित हैं, (प्रज्ञा, प्रतिष्ठिता)
प्रज्ञान ब्रह्म है । (प्रज्ञानम्, ब्रह्म)
(सः, एतेन, प्राज्ञेन, आत्मना) वह इस प्राज्ञ आत्मा से
(अस्मात्, लोकात्, उत्क्रम्य) इस लोक से ऊपर चढ़कर
(अमुष्मिन्, स्वर्गे, लोके) उस स्वर्ग लोक में
(सर्वान्, कामान्, आप्त्वा) समस्त इच्छाओं को पूरी करके,
(अमृतः, समभवत् समभवत्) अमर हो जाता है । इति ओम् ।।
व्याख्या - इससे पहले इस उपनिषद् में दो शरीर और दो आत्माओं का विवरण दिया गया है ।
उनमें से एक तो वह है जिसका शरीर विराट् रूप है
और जिसके इन्द्रियों से अग्नि आदि भूतों की उत्पत्ति हुई है,
दूसरा शरीर वह जिसके इन्द्रियों में, ये पंच्चभूत इन्द्रिय शक्ति होकर, प्रविष्ट हुए ।
इस दूसरे शरीर के लिए कहा गया है कि
इसमें रहने वाला आत्मा (जीव)
पिता के वीर्य में प्रविष्ट होकर
उसी के साथ माता के शरीर में जाकर गर्भ की स्थापना करता है ।
विराट् रूपी शरीर में रहने वाला आत्मा ब्रह्म है
और माता के शरीर से गर्भ में आकर उत्पन्न होने वाला जीव है ।
अतः इस खण्ड के प्रारम्भ ही में यह प्रश्न किया गया है कि
इन दोनों आत्माओं में से वह कौन सा आत्मा है कि जिसकी हम (मनुष्यगण) उपासना करते हैं ।
क्या वह जिसके शरीर में होने से हम देखते - सुनते आदि हैं ।
इस प्रकार का उत्तर स्वयं उपनिषद् के पाठक दे सकें,
इसके लिए उपनिषद्कार ने वर्णन किया है कि
जो मन और हृदय है वह ‘‘संज्ञान’’ आदि १६ वस्तुओं में ही है
और इन सोलह वस्तुओं में से, एक जो प्रज्ञान है,
जिसका नाम प्रारम्भ में ही लिया गया है,
बाकी ‘‘संज्ञान’’ आदि उसी का रूप अथवा नाम है ।
इतना वर्णन करने के बाद अब असली प्रश्न का उत्तर दिया है कि
वह प्रज्ञान ही ब्रह्म है,
वही इन्द्र और वही प्रजापति है ।
बाकी जीव जगत् अथवा प्राकृतिक जगत् क्या है?
इसके लिए कहा गया है कि
ये सब उसी प्रज्ञा (प्रज्ञान) के नेत्र हैं
और उसी प्रज्ञा में प्रतिष्ठित हैं ।
अर्थात् वही प्रज्ञान रूपी ब्रह्म इन सबका आश्रय स्थान है
और इसी का प्रज्ञा रूप ब्रह्म के आश्रय से मनुष्य इस लोक से ऊपर होकर,
आप्तकाम हो जाता और मोक्ष प्राप्त कर लिया करता है ।
यहाँ (इस खण्ड में) मन को चेतना और
संज्ञानादि को उसी चेतना का रूप अथवा नाम क्यों कहा गया है ?
उत्तर स्पष्ट है और वह यह है कि
शरीर में जीव के होने से उसकी चेतना का प्रकाश समस्त शरीर में
उसी प्रकार फैला हुआ रहता है
जिस प्रकार लैम्प का प्रकाश कमरे में और
जिस प्रकार उस लैम्प के प्रकाश से कमरे की प्रत्येक वस्तु प्रकाशमय होती है ।
उसी प्रकार आत्मा की चेतना के प्रकाश से भी समस्त मन और इन्द्रियादि,
शरीरावयव चेतनामय और प्रकाशित रहते हैं ।
ब्रह्म को प्रज्ञान क्यों कहा गया ?
इसलिए कि चेतना, आनन्द और सत्य के साथ उसका स्वरूप है और
ब्रह्म को इसीलिए सच्चिदानन्द स्वरूप कहते हैं ।
इति पंच्चमः खण्डः इत्यैतरेयाण्यके षष्ठोऽध्यायः इति उपनिषत्सु तृतीयोऽध्यायः इत्यैतरेयोपनिषत्सम्पूर्णा
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