जानते हैं ,तो झगड़ा किस बात का? नहीं जानते, तो झगड़ा किस बात का?


                                                ||ॐ श्री जय हंस निर्वाण निरंजन नित्य ||


 


मानव धर्म में कोई छोटा कोई बड़ा नहीं होता-

हम एक को जानते हैं और कोई दो को जानता हैं, एक का ज्ञाता जब दो के ज्ञाता से 

मिलता हैं, तो क्या होगा? सोचे तो बहुत कुछ हो सकता हैं और सोचे ही नहीं तो? 

हमें ब्रह्म का ज्ञान हैं, इसलिए भ्रम हमें पसंद नहीं, लेकिन किसी अन्य को ब्रह्म का 

ज्ञान नहीं इसलिए उसे भ्रम पसंद हैं, जो हमें पसंद नहीं वो किसी अन्य को पसंद हैं 

और हम जो पसंद करते हैं वो किसी दूसरें  को पसंद नहीं आता, तो क्या हम एक 

दूसरें के विरोधी हैं? क्या हमें एक मत की आवश्यकता हैं? क्या विरोधी स्वभाव के 

कारण हम एकमत नहीं हो सकते? क्या हमारा विरोध सही हैं? क्या हमें कोई और 

रास्ता तलाशना होगा? क्या हमारें बिना हमारें विरोधियो की पहचान हो सकती हैं? 

हमारा महत्व क्या हैं? यह सबसे अधिक वही जानते हैं, जो हमारे विरोधी हैं, और 

कोई नहीं जान सकता, अगर वो नहीं रहें तो हमारी पहचान भी नहीं रहेंगी, अत: 

इससे ज्ञात होता हैं की उनका भी हमारें जितना ही महत्व हैं,


 विरोधी का विरोध 

हमारी परछाई हैं, अत: स्वयं की परछाई को मिटाना स्वयं को मिटाने जैसा हैं, क्या 

यह करना हमारें लिए सही हैं, कभी देखा करते हैं, तिरछी धूप में, तो हमारी परछाई 

भी हमसे बड़ी दिखाई देती हैं, पर सोचा नहीं कभी, वो हमें छोटा दिखाने के लिए, यह 

सब नहीं करती, बल्कि वो तो हमारें होने का संकेत दे रहीं हैं, 

एक के भ्रम में दो को भूलना क्या सही हैं? 

यही सवाल फिर हमारें सामने था, क्या करें इस दुविधा का? 

समझ से सब कुछ बहार था, क्योंकी प्रश्न हमारा था और उत्तर भी हमारें सामने था, 

फिर भी कुछ तो था, जो हम नहीं समझ पायें, परछाई भ्रम पैदा करती हैं, भला यह 

हमारें होने का संकेत कैसे हो सकती है? यह तो एक विरोधी भाव हैं, यदि ऐसा ही हैं, 

तो हम इसे नहीं मानते, चाहें इसके लिए, हमें अपने प्राण भी दाव पर लगाने पड़े, तो 

क्या हम पीछे हट जाए? नहीं! यह संभव नही, अगर हमने ऐसा किया, तो यह हमारी 

हार होगी, हम बड़े हैं, इसलिए हम से सब कुछ हैं, हम किसी पर आश्रित नहीं, फिर 

ये तो मात्र हमारी परछाई भर हैं, यह कैसे बड़ी हो सकती हैं,




मानव के बिना ज्ञान का कोई मोल नहीं और ज्ञान मानव की सुंदर कल्पना हैं-   

ब्रह्म ज्ञान ने हमे  बलवान बनाया हैं, अब हम भ्रम का ज्ञान, अपने पास रखकर, 

स्वयं को कमजोर नहीं बना सकते और हम यह भी नहीं मानते की ब्रह्म ज्ञानी से 

महान कोई हैं? कोई हो ही नहीं सकता? क्योंकि यह हमारा मानना हैं, कोई और 

माने न माने, जो हमारें ज्ञान को नहीं जानते, उनका जीवन ही व्यर्थ हैं, ऐसे लोग 

संसार में धरती थी पर बोझ हैं, उनके बारे में कुछ भी सही नहीं कहा जा सकता, 

क्या हमने सही किया? क्या हम धरती पर बोझ नहीं? जो आज हैं, वो कल नहीं 

और जो कल था, वो आज नहीं, क्या यह सही सही हैं? 


जाति जैसी हो जरुरी नहीं, कर्म भी उसी जाती के जैसे हो, पर कर्म जैसे होते हैं जाती 

भी उसी के अनुसार होती हैं-  

क्या ज्ञानी अज्ञानी नहीं? क्या ज्ञानी कभी अज्ञानी था? क्या 

अज्ञानी ज्ञानी नहीं? क्या अज्ञानी कभी ज्ञानी नहीं होगा? क्या अज्ञानी ज्ञानी होगा? 

क्या ज्ञानी भी अज्ञानी हो सकता हैं? क्या ज्ञान की तुलना में अज्ञान छोटा है? क्या 

अज्ञान अधर्म हैं? उसका कोई गुण धर्म नहीं, हमे अज्ञान से क्या लेना? एक ही 

व्यक्ति कई काम करता हैं, तो हम उसके कार्य की पहचान के लिए, उसे भिन्न 

भिन्न नाम से पुकारते हैं, इससे ज्ञात होता हैं कि यहाँ व्यक्ति की पहचान उसका 

काम हैं न की उसकी जाती, 


यह पहचान भी केवल एक पहचान हैं-                              जिस तरह 


काम से पहले, व्यक्ति की पहचान नाम से होती हैं, नाम जब एक के लिए प्रयोग 


करें, तो यह पहली पहचान हैं और जब नाम अनेक के लिए प्रयोग करें, तो यह दूसरी 


पहचान हैं, हर वस्तु का नाम होता हैं, जो उसकी पहली पहचान हैं और हर वस्तु का 


अपना कोई काम होता हैं, जिसके लिए वह बना हैं, उस जाती या काम के आधार 


पर यह दूसरी पहचान हैं, जो हमारें स्वयं  के कर्मो द्वारा निर्मित होती हैं, नाम तो 



किसी ना किसी रूप में सबका होता हैं और काम या कार्य करने का अधिकार या बल 


भी सबके पास हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं की नाम सबका प्रकट हो और यह भी कोई 


जरूरी नहीं की अपने काम का ज्ञान सबको हों, 




जिसको अपने  नाम का ज्ञान नहीं, पर अपना काम कभी नहीं भूलता, उसे नियमित 

रूप से करता हैं, क्या यही कर्मयोग हैं? अगर ऐसा है तो,

 हम कर्म योग भी नहीं कर पाएं, क्योंकी ऐसा कोई काम नहीं, जिसे हम रोज 

कर पाएं, कहीं ना कहीं, कभी ना कभी, हर दिन होने वाले काम भी, हम समय पर 

नहीं कर पाते, इसका अर्थ हैं, हम कर्मयोगी नहीं, तो क्या हम कर्मयोगी नहीं? तो 

हम क्या हैं? क्योंकि काम तो हम भी करते हैं और यह भी हमने सुना हैं कि जो 

काम से जुड़ा हैं, उसे ही कर्मयोगी कहते हैं, पर हम यह नहीं जानते, अनियमित रूप 

से काम करने वाले को क्या कहते हैं? अगर हमें यह ज्ञात हो, तो हम अपने काम 

को भी एक नाम दे, क्या अनियमित रूप से काम करने वाले को आलसी कहते हैं? 

पर आलसी तो वो होते हैं,

जो अपने काम में रूचि नहीं लेतें, पर हम तो वही करते हैं, जो हमें 

रुचिकर होता हैं, बिना रूचि वाले काम, हम दूसरों के लिए करते हैं, इसलिए हम 

आलसी भी नहीं, कर्मयोग हमारें पास नहीं, इसलिए हम कर्मयोगी भी नहीं, अगर 

केवल काम करना ही कर्म योग हैं, काम चाहें नियमित हो या ना हो, तो हम भी 

कर्म योगी हैं, इसलिए हमें जो अच्छा लगता हैं, वो काम हम कर लेते हैं और जो 

अच्छा नहीं लगता, वो काम हम कभी नहीं करते, यह जरूरी नहीं, वो काम भी हम 

दूसरों के लिए कर देते हैं, क्योंकि हमें उस काम में रूचि नहीं, लेकिन दूसरों की रूचि 

उस काम में हैं, केवल इतना ही नहीं, बल्कि हम दूसरों के लिए जो काम करते हैं, 

उस काम को करते हुए भी, अपनी ही इच्छा को प्राथमिकता देगें, अर्थात जो काम 

दूसरों की इच्छा से हम करते हैं, उस काम को हम पहले अपनी इच्छा से मिलाकर 

देखते हैं, अगर दूसरों की इच्छा, किसी भी रूप में, या किसी भी तरीके से, कभी भी, 

कहीं भी, किसी भी कीमत पर, हमारी इच्छा से  मिल जाती हैं, तो  अपनी इच्छा भी 

उस काम में शामिल हैं, यह मानते हुए, सहज भाव से उस काम को कर देते हैं, जो 

काम हम दूसरों के लिए करते हैं, उस काम में हमारी इच्छा कारण मात्र हैं  

जो इच्छा, दूसरों की इच्छा होते हुए भी, हमारी इच्छा के विरुद्ध, प्रतीत नहीं 

होती अर्थात हमारी और उनकी  इच्छा एक भी नहीं, तो एक से भिन्न भी नहीं हैं,

क्योंकि हमारी इच्छा पूर्णत: दूसरों की इच्छाओं से नहीं मिलती तो क्या हुआ?  

पर यह भी सत्य हैं कि हामारी इच्छा पूर्णत: दूसरों से भिन्न 

भी नहीं हैं अर्थात दूसरों की इच्छा, किसी भी रूप में या किसी भी तरीके से, कभी 

भी, कहीं भी, किसी भी कीमत पर, हमारी इच्छा से मिल जाती हैं, इस प्रकार हमारी 

इच्छाओं का मिलाना हमारें लिए योग हैं, हम इस योग के ज्ञाता है और हमारें 

 योग को जानने वालें हमारें जैसे योगी हैं, जो हमारें योग की जानकारी नहीं रखते 

हैं, उनका काम भी जब हम अपने योग से करते हैं, तो वो हमें अपना समझकर, 

हमारा मन्त्र जाप करते हैं अर्थात हमारें कथन को सत्य जानकर, उसी के अनुरूप 

आचरण करने लग जाते हैं और  इस तरह के व्यवहार से, उन्हें हमारें नाम का पता 

लग जाता हैं, फिर धीरे धीरे यह सिलसिला आगे बढ़ता हैं, वो हमारें रूप को भगवान 

की तरह पूजने लगते हैं, हम से मिलने वाले को हम कभी धोखे में नहीं रखतें हैं, 

क्योंकि हम योग से मिले हैं, यह हमें ज्ञात हैं, पर यही बात उन्हें नहीं पता, जो हमें 

भगवान की तरह पूजने लगें और अपना सारा समय हमारें पास बिताना चाहतें हैं, 

उन्हें तो हमारा मिलाना संयोग लगता हैं, उन्हें यही पता हैं कि उन्हें हमसे मिलाने 

वाला कोई दूसरा हैं, जो हमसे बलवान और विद्वान हैं, जिनका मिलना भी, उनको 

संयोग लगता हैं, इस प्रकार नाम को जानने वालें, योग से अनजान रहते हुए, संयोग 

से ही हमसे मिलते हैं और हमें जानते हैं, इसलिए हमारा नाम जपतें हैं और हमसे मिलते रहते हैं, हमारें किये हुए कार्य में 

केवल हमारा योग हैं, जिसमें हमारी इच्छा ही सर्वोपरी हैं और इस सर्वोपरी इच्छा में 

वो इच्छा भी शामिल हैं, जो इस सर्वोपरी इच्छा से मिलती हैं जहां यह इच्छाएं 

मिलती हैं, उस स्थिति में, उस स्थान में और समय में, हम योग से जुड़कर हर वो 

काम करते हैं, जो हमें रुचिकर लगता हैं, क्योंकि यही मात्र एक ऐसा मार्ग हैं, जिसके 

द्वारा हम अपने आनंद को प्रकट करते हैं, हमारें आनंद के हम ज्ञाता हैं, जो इसे 

नहीं जानतें, केवल हमें जानते हैं, उन्हें भी यह आनंदम, हमारें योग से प्राप्त होता हैं, 

जो हमारें योग को नहीं जानकर, केवल हमें जानते हैं, उन के लिए यह 

आनंद, आनन्द ही रहता हैं, क्योंकि वो हमारें योग को नहीं जानतें, हमारें योग से 

 हमारा नाम पता, उन्हें मिल गया, पर उनको यह नहीं पता की हमारा काम क्या 

 हैं? यह तो हमें पता हैं कि जहां हमारा काम हैं, वहीँ हमारा धाम हैं अर्थात हमारें 

योग करने की जगह हैं, जब हमें योग क्रिया करनी होती हैं, तब हम यहीं रम जातें 

हैं, और हमारी योग क्रिया पूर्ण होती हैं, तो हम परम धाम में जाकर विश्राम करतें हैं, 

यह हमारा शयनक्ष हैं, जहां हमारें साथ केवल, हामारें होने का अनुभव ही प्रवेश करता 

हैं, यहां आने के बाद, हम और हमारा अनुभव, एक दूसरें में पूर्णत: समाहित होकर, 

गहन निद्रा में रहतें हैं, गहन निद्रा में क्या होता हैं, यह वाणी का विषय नहीं और 

गहन निंद्रा के बाद, जब हमारी आखें खुलती हैं, तो हम अपने परमधाम से, योग 

धाम की ओर चलते हैं, इस बीच हमें जो मिलते हैं, वो हमें केवल संयोग से याद 

करते हैं, उन्हें केवल हमारें योग से हमारें नाम का पता तो मिल गया, पर उनको यह 

नहीं पता की हम काम क्या करतें हैं, उन्हें यह बताना भी आवश्यक हैं कि हम करतें 

क्या हैं? ताकि सबको यह पता चल जाएं,  हमारें किस रूप में उन्हें अटूट विश्वाश 

हैं, उनकी इच्छा हमारें काम के प्रति है या नाम के प्रति, इसका निर्णय उन्हें स्वयं 

करना हैं, हम उनके निर्णय को सम्मानित करते हैं, जो हमारें नाम को जानते 

हैं, उनको हमारें काम पता हो, तो यह हमारा महायोग हैं, योग धाम का सबसे श्रेष्ठ 

योग होने से महायोग के नाम से जाना जाता हैं, क्यों कि इस महायोग की अनोखी 

शक्ति, भेद को अभेद में लय कर, अपनी श्रेष्ठता का प्रमाण देती हैं| 

कर्म के साथ योग विचार 

 कर्म तो नियमित करें, पर फल की इच्छा ना करें, क्या इसे कर्मयोग कहते हैं? 


क्या कर्म फल की इच्छा रखते हुए नहीं कर सकते? क्या फल की इच्छा रखने से 


कार्य सफल नहीं होता? यदि कार्य सफल हो भी जाए तो क्या फल की इच्छा रखने 


से फल नहीं मिलता? फल की इच्छा से हम कोई काम करें और हमें फल भी मिल 


जाए तो क्या वह फल हमारें लिए लाभप्रद नहीं? क्या हमें लाभ की जगह हानि भी 

हो सकती हैं? अगर ऐसा हैं तो फिर कर्म करने की क्या जरूरत रह गई? 

क्योंकि हम तो 


अपने लाभ के लिए कार्य करते हैं, हानि के बारे में सोचकर कभी काम नहीं किया जा 


सकता, अगर हम हानि के लिए कार्य करते रहें, तो हमारा जीवन ही व्यर्थ हो 


जाएगा, इससे अच्छा हैं, हम कर्म ही ना करे, इससे हमारा जीवन तो सुरक्षित रहें,  


क्या यह हमारें लिए सही नहीं? पर यह कैसे संभव हैं? फिर भी हमें जवन की सुरक्षा 


चाहिए. इसके लिए हमें कुछ ना कुछ तो करना ही होगा, अन्यथा हामारें प्राण ही नहीं 

रहेंगे, फिर तो इस जीवन की कल्पना ही व्यर्थ हैं, यदि हमें प्रणों का पोषण करना 

हैं, तो हमें कर्म करते रहना होगा, क्योंकि प्राणों का पोषण कर्मो के द्वारा ही संभव हैं 
हमारें पास दूसरा कोई उपाय ही नहीं, मात्र कर्म ही एक 

मार्ग हैं, जिसे हम पहले हानि के भय से, पोषक की जगह शोषक मान रहें थे, क्या 

हमें हानि का भय नहीं करना चाहिए? यदि हम हानि का भय ना करें, तो लाभ की 

इच्छा तो रख सकते हैं, हमें हानि का भय नहीं, पर लाभ की इच्छा अब भी हैं, हम 

बार बार लाभ के लिए प्रयत्न करते हैं, क्योंकि हमें हानि का कोई भय नहीं, लेकिन 

यह भी एक कटु सत्य हैं की हमें हर बार हानि ही मिली, जब हम बिना प्रयत्न के 

रहें, तब भी और जब-जब हमने प्रयत्न किया, तब भी, हमें हानि का भय नहीं, यह 

तो तय हैं, लेकिन लाभ की चाह में, हमें लाभ ही नहीं मिला, तो क्या हमारा लाभ 

के लिए, काम करना व्यर्थ हैं, क्या हमें किसी काम से हानि का भय नहीं होने पर 

भी, लाभ की इच्छा नहीं रखनी चाहिए? क्योंकि हमने यह जान लिया की हमारी  

 इच्छा लाभ थी, फिर भी हमें लाभ ही नहीं मिला और हानि के भय या दुःख से, हम 

यह नहीं कह रहें, क्योंकि हानि का भय हमें नहीं, इसलिए दुःख हानि से हो नहीं 

सकता और हानि की इच्छा तो हमें पहले भी नहीं थी, हानि का डर हमें इसलिए 

नहीं, क्योंकि हमें ज्ञात हो गया हैं कि लाभ मिले न मिले, पर हानि तो हर काम में 

छुपी हैं, फिर हमें लाभ की इच्छा क्यों हैं? हमने हमारी लाभ की इच्छा का प्रयोग भी 

करके देखा तो भी, हमें लाभ ही नहीं मिला, हम यह नहीं कह सकते की हमें हानि ही 

मिली, क्योंकि हमें इसका पहले से पता हैं की लाभ हो ना हो, पर हानि तो पक्की हैं, 

इसलिए इसका भय भी नहीं रहा, हम तो यह कहना चाहते हैं, अपने आप से की हमें 

तब भी लाभ की चाह थी,जब हानि का भय हमारें पास नहीं था, फिर भी हमें लाभ  

ही नहीं मिला, तो क्या लाभ को ध्यान में रखकर काम करना व्यर्थ हैं? काम तो हम 

करेंगे, अगर नहीं किया तो जीवन नहीं रहेंगा, और जीवन हम खोना नहीं चाहते हैं, 

लाभ हमें मिल नहीं रहा? कार्य हम छोड़ नहीं सकते? हानि से हमें भय नहीं? ऐसा 

लगता हैं, अब तो लाभ की इच्छा भी, अपने आप से धोखा हैं और धोखा हमारें 

विश्वास के साथ छल हैं, नहीं? यह धोखा नहीं? क्योंकि इसका तो हमें पता हैं की 

लाभ हमारें चाहने से नहीं मिलता, तो फिर इसे क्या नाम दे? जिसका हमें पता हैं 

की लाभ चाहने से नहीं मिलता, फिर भी हम बार बार, जो भी करते हैं, उसी की चाह 

में करते हैं, इसे हम भूल भी नहीं कह सकते? क्योंकि भूल बार बार नहीं होती,  क्या 

हम इसे आदत कह सकते हैं? क्योंकि जिस काम की हमें आदत होती है, हम उसे 

बार बार करते हैं और जिस काम की हमें आदत नहीं, उस काम को हम बार-बार 

नहीं करते हैं, अगर यह आदत है? तो गलत ही है, इसका अर्थ हैं- जरुरी नहीं की 

हमें सही आदत हो, गलत आदत भी हो सकती है, यानी हम हर काम सही नहीं 

करते, कुछ काम ऐसे हैं, जो हमें सही लगते हैं, इसलिए हम उन्हें करते हैं और हमें 

जो सही लगें, वही सही हैं, क्या यह कहना गलत नहीं हैं? 

क्योंकि हमें लाभ सही लगा, तो हमने लाभ के लिए प्रयास किया, पर हमें लाभ ही  

नहीं मिला इसका अर्थ हैं- हमें जो सही लगा वह गलत था- हमें जो सही लगा, वह 

गलत था, नहीं? यह पूर्ण सत्य नहीं? क्योंकि जो हमारें लिए लाभप्रद नहीं वह  किसी 

अन्य के लिए लाभप्रद हो क्या पता?, इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि हमें जो 

सही लगा, वह गलत था, तो क्या हम यह कह सकते हैं? समझ अधूरी थी, इसलिए 

हमने लाभ को ही महत्व दिया, इतना ही नहीं, लाभ को महत्वहीन भी हम ही कर रहें 

हैं, अर्थात लाभ हमारें कहने मात्र से, अपने अर्थ को तो नहीं बदल सकता, लाभ तो 

लाभ ही रहेगा, उसमें सार हमने खोजा, उसे सारहीन हमने बनायाहमारें ऐसा करने से 

लाभ, क्या लाभ नहीं रहा? वह हानि में बदल गया, नहीं? ऐसा कुछ भी नहीं हैं, हमारी 

अधूरी समझ ने सोचा नहीं और बोल दिया, तो क्या अधूरी समझ? पूरी समझ बन गई

नहीं? और हम हानि कभी नहीं चाहते, क्योंकी हानि हमारी नज़र में गलत हैं, फिर भी 

हमें हानि मिलती हैं, तो क्या? जो गलत होता हैं, वह बिना चाहें मिल जाता हैं, नहीं 

ऐसा भी नहीं हैं? हानि के साथ भी हमने वही किया, जो हमने लाभ के साथ किया था

अंतर केवल इतना है कि हानि को हमने पहले महत्व नहीं दिया, जब लाभ ही नहीं 

मिला, तो हमने जिसे पहले महत्वहीन समझा, उसे बाद में महत्वपूर्ण समझने लगें, यह 

पूर्ण सत्य नहीं की हानि को हमने कभी महत्व दिया, पूर्ण सत्य यह हैं की हमें हानि 

महत्वहीन लगती हैं, पर हमने उसे महत्व दिया भी, तो केवल लाभ के लिए, ताकि हम 

हानि को लाभ में बदल सकें, यह हमारी अधूरी समझ का खेल है, जिसमें हम राजा 

को रानी और रानी को राजा समझते हैं, पूरी समझ से खेले तो राजा-राजा ही रहेगा 

और रानी-रानी ही रहेगी अर्थात हमारी अधूरी समझ, उस खेल को नहीं खेल पाई, जो 

पूरी समझ से खेला जाता हैंइसलिए हमने पूरा खेल ही बदल लिया, अर्थात हमारें 

पक्ष को पक्का करने के लिए, हमारी अधूरी समझ से, हमने खेल ही दूसरा रच दिया, 

जिसके नियम पहले वाले खेल से विपरीत थे,पर खिलाड़ी वही थे और

हम हानि कभी नहीं चाहते क्योंकी हानि हमारी नज़र में गलत हैं, फिर भी हमें हानि 

मिलती हैं अर्थात लाभ की चाह सही थी, पर लाभ नहीं मिला, हमारी चाह गलत हो 

गई और हमें हानि की चाह नहीं थी, फिर भी हानि मिली, तो यह किसकी चाह का 

परिणाम हैं, जो हमें मिला, क्योंकि हमारी चाह हमें नहीं मिली, जिसे हमने नहीं 

चाहा, वह हमें मिली, यह क्या हैं? कर्म की रखा बीच में और एक तरफ हानि, तो 

दूसरी तरफ लाभ, चुनाव हमने लाभ का किया, मिला क्या हानि? तो क्या हम हानि 

की चाह रखते? इससे हमें लाभ मिलता, पर ऐसा भी कहां हुआ? हमने बिना लाभ 

की चाह के, कई काम भी किये, जिसमें हानि स्पष्ट दिखाई दे रही थी, सुना हमने 

भी यही था-  "पाने की चाहा में पहले कुछ खोना पड़ता हैं|", तब से हमें पाने की 

चाह तो नहीं रही, पर खोने की चाह को अपना बना लिया, फिर भी लाभ ही नहीं 

मिला, कर्म की रखा बीच में, एक तरफ हानि, तो दूसरी तरफ लाभ, क्या करें? कर्म 

को छोड़ नहीं सकते, यह तो जीवन का आधार हैं, हानि और लाभ हमारी इच्छा के 

अनुसार नहीं, यह तो कर्मो की रेखा से बंधे हैं, कर्म किसी और के नहीं, यह तो 

हमारी आपनी कमाई हैं, जिसका हिसाब-किताब हमें नहीं आता, 

फिर भी कोशिश करके, एक दिन उसे सही कर लेते हैं, जाने अनजाने में ही सही 

तुका मिल जाता हैं, तो उत्तर सही होने में कोई संशय नहीं, क्या तुकाबंदी करना 

सही हैं? इससे हम अपना मनोरजन ज्यादा देर तक नहीं कर सकते, कुछ और 

तरीका अपनाना होगा, तो क्या हम विचार मंथन का सहारा ले सकते हैं?

बात तो लाभ और हानि की हैं, यह दो शब्द हैं, जिनका प्रयोग हम दो तरह की दशा 

को समझने के लिए करते हैं- इन शब्दों से हम यह समझ जाते हैं या दूसरें को भी 

बता सकते हैं की जिसमें हमारा हित हैं, उसे हम लाभ कहते हैं और जिसमें हमारा 

हित नहीं हैं, उसे हम हानि के नाम से जानते हैं, अगर यह दो शब्द नहीं होते, तो 

क्या हम यह नहीं कह पाते? हम तो तब भी समझते और कहते यही, अंतर केवल 

इतना ही रहता की हमारें पास कोई और शब्द इनकी जगह होते, नासमझ बच्चे इसी 

तरह करते हैं, फिर भी उनमें यह भाव नहीं पनपता की यह नहीं तो और सही, उनको 

तो केवल देखना हैं, अंतर करना अभी, उनके लिए समझ से दूर हैं और हम इस 

अंतर को धीरे-धीरे समझ तो गयें, पर अब यह अंतर मिटाना समझ से दूर हैं, क्या 

अंतर को ना समझना भूल हैं? क्या अंतर को समझना भूल हैं? क्या दोनों ही भूल 

हैं? यदि अंतर ना समझे तो आश्रित रहेंगे, एक बालक की तरह और अंतर को समझ 

लिया, तो स्वयं के बल पर कार्य करेंगे, एक वीर की तरह, फिर भी यदि अंतर 

निरंतर में लय नहीं किया, तो अनुभव से वंचित रहेंगे, एक मीन की तरह, क्या यह 

सही हैं? हम समुद्र में तैरना जानते हैं, इसलिए डूब नहीं सकते, यह सत्य हैं पर  

उनके लिए, जो तैराकी के साथ-साथ, यह भी जानते हैं कि हमें किस तरह से, अन्य 

समुद्री जीवों से, अपनी सुरक्षा करनी हैं, जिसमें उनका भी अहित ना हो और हमें भी 

अपने हित की रक्षा करने में, कोई बाधा ना हो, इस कला को धारण करने वाले ही, 

बिना किसी अपराध बोध के, समुद्र से मोती खोज लेते हैं और बिना किसी अहं के, 

उस मोती को, उसे सोप देते हैं, जो पारखी होता हैं, जिसको परख करनी आती हैं, 

इसका यह अर्थ नहीं की मोती नकली हैं? इसका अर्थ हैं- जिसके पास दो विशेषता हैं, 

जो तैरना भी जानता हैं और परख भी कर सकता हैं, वह असली मोती ही रखता हैं, 

जो तैरान तो नहीं जानता, लेकिन परख करना जिसे आता हैं, उसे यह असली मोती 

मिलते हैं, इससे उस पारखी को भी, अपनी परख का मोल समझ में आता हैं अर्थात 

जो केवल पारखी ही था, परख करना जानता था, पर वह असली वस्तु की परख 

करना चाहता था, वह वस्तु उसके पास थी, लेकिन असली वस्तु को परखने की कला, 

उसके पास नहीं थी, इसलिए उस पारखी को, असली पारखी की आवश्यता हैं, उसकी 

आवश्यकता को पूरा करना, असली पारखी का वास्तविक धर्म हैं और जो अपने इस 

धर्म का पालन करता हैं, वही असली पारखी हैं, जब नकली परख, असली परख में 

बदलती हैं, तो असली पारखी के अनुरूप अपने आप को जानकर, वही व्यवहार करता 

हैं, जिससे उसकी दोनों विशषता प्रकट होती हैं, विशेषता (कला/ समझ/ उपाय) को 

अपने पास रखने का लगाव या उसी स्थिति में रहने की चाह, केवल स्वयं को 

सर्वश्रेष्ठ बनाएं रखने का प्रयत्न मात्र हैं, जो 

अपूर्ण से भिन्न होकर, पूर्ण बनकर रहता हैं और अपूर्ण में वापस समाने के भय से, 

अपनी असलियत को को छुपाता हैं अर्थात असली अपने पास रखता हैं और नकली 

बेचता हैं, केवल अपने कल्याण के लिए, अन्य के कल्याण को महत्व नहीं देता, 

असली मोती बाजार में नीलाम नहीं होते, क्योंकि वस्तु की बोली उस स्थिति में 

लगाते हैं, जब वस्तु से ज्यादा, वस्तु के ग्राहक हो पर यहां ऐसा कुछ भी नहीं, 

जिसके लिए नीलामी जरुरी हो, यहां तो पूर्ण ही पूर्ण हैं और जो पूर्ण हैं, वह अपूर्ण 

की आवश्यकता को देखते हुए, अपने धर्म का पालन मात्र करता हैं, यह तो तभी 

संभव हैं, जब पूर्ण के लिए पूर्ण और अपूर्ण के लिए अपूर्ण होते हुए भी दोनों में 

समाहित ( समान हित को रखने वाला) होकर रहें, असली पारखी के लिए,

अंतर और निरंतर में भेद करके, अंतर को निरंतर में देखना, निरंतर में अंतर को 

देखना सहज होता ,हैं क्योंकि जो ऐसे देखता हैं, उसके बारे में वाणी से कथन करना, 

कोरी कल्पना हैं, 


जिसको अपनी फ़िक्र नहीं, वही दूसरों की फ़िक्र करते हैं, क्या यह सही हैं ?
   जिस रास्ते पर हमारा घर नहीं, उस रास्ते की यात्रा हम क्यों करें? जो ऐसा करते 

हैं, उनको अपना घर नहीं मिलता, वो हमेशा पराये घर में विश्राम करके, अपना 

जीवन बिताते हैं, उनका अपना कोई मान सम्मान नहीं होता, ऐसी यात्रा करने वाले 

फकीरों से हमारा कोई वास्ता नहीं, हम अलमस्त हैं, फकीरों की फ़िक्र हमसे नहीं 

होती, हमारी मस्ती को हम ने ही नहीं जाना तो ओरों की क्या मजाल इस मस्ती की 

खाक छानकर बताये? 



ज्ञान से दुनियां बड़ी नहीं, तो क्या ज्ञान दुनियां से बड़ा हैं

संसार ही नहीं, तो ज्ञान का क्या मोल और ज्ञान नहीं, तो संसार के होने का कोई 

सार नहीं, जहाँ ज्ञान हैं, वहां अज्ञान का होना सहज हैं, हम केवल ज्ञानियों की 

सुनते हैं, अज्ञानियों की यहाँ कोई जरूरत नहीं, वो भला हमें क्या बता सकते हैं, कुछ 

भी नहीं, अज्ञानियों के पास हृदय नहीं होता, वो पत्थर दिल होते हैं, क्या 

यह सही हैं? उनका होना हमारें लिए हानि हैं, क्या यह सोच हमारी हैं? क्या ज्ञान 

और अज्ञान मानव को मिटाने के लिए हैं? 




क्या ज्ञान और अज्ञान जीवन में होना जरूरी हैं?


क्या ज्ञान गंगा में अज्ञानी प्रवेश नहीं करते? हमारें विचार एकमत हो क्या 

यह जरुरी हैं, क्योंकि हमारें जैसा पूरी दुनियां में कोई नहीं, इसलिए यह सोचना ही 

व्यर्थ हैं, इससे अच्छा तो हम दर्पण के सामाने स्वयं को खड़ा कर लें और निहारते 

रहें अपने आप को, स्वयं ही स्वयं से बाते करते रहें, ज्ञान का होना सही हैं पर 

अज्ञान का भी ज्ञान होना जरूरी हैं,अर्थात सही और गलत दोनों को पहचान लेना ही 

वास्तविक ज्ञान हैं, वस्तु का ज्ञान होने से क्या हुआ? जब तक वस्तु के प्रयोग का 

ज्ञान हमें न हों   



यह सब क्यों हो रहा हैं? 

हम यह विचार करने की भूल नहीं करेंगे? क्यों कि हमें पता हैं अज्ञान में हम पागल 

हो जाते हैं और ज्ञान में विद्वान् बनकर रहते हैं, ये अलग बात हैं कि अज्ञान को 

हम मानते नहीं और ज्ञान के देवता की पूजा के लिए, हम कुछ भी कर सकते हैं, 

क्यों कि ज्ञान के देवता जब यात्रा पर रहते हैं तो उनका पद भार हम देखते हैं, ज्ञान 

के सबसे विश्वास पात्र शिष्य हम हैं, अज्ञानी उनकी शोभा को क्या जाने? कहीं यह 

हमारा ज्ञान के प्रति घमंड तो नहीं? क्योंकि ज्ञान का होना, अभिमान नहीं विनम्रता 

हैं| और ज्ञानी की विनम्रता यह हैं की शरण आये को सही दिशा बताकर उसका उचित 

मार्गदर्शन करे, शरणागत के प्रश्नों का उत्तर देकर उसके संशय को दूर करे,   

अपने ज्ञान का बखान कर किसी को दिशाहीन करना ज्ञान की महिमा नहीं, 

क्योंकि दीपक भी अपने आप को अंधरे में रखता हैं, फिर भी दूसरें के घर को रोशन 

करने की कोशिश में स्वयं जलता हैं, और हमारा ज्ञान यदि दूसरें के घर को जलाकर 

स्वयं के जीवन को रोशन करना हैं, तो यह ज्ञान नहीं, बल्कि ज्ञान के भेष में छुपा 

वह अज्ञान हैं,जिसकी पहचान एक धोखे से ज्यादा कुछ नहीं, क्योंकि बुराई अच्छाई 

के रूप में आने से अच्छाई नहीं बन जाती, इसी तरह अच्छाई बुराई के रूप में आने 

पर भी बुराई नही बन जाती, इससे ज्ञात होता हैं की आरम्भ जितना महत्व रखता हैं 

अंत का भी उतना ही महत्व हैं, यानी सही हमेशा सही होता हैं, गलत हमेशा गलत 

होता हैं, यदपि गलत, सही की परछाई मात्र हैं, तथापि गलत की पहचान ही सही की 

खोज हैं, जो स्वयं पर टिकी हैं|          

   

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