यह महावाक्य मानव को यह महसुस कराता है कि मैं परमात्मा से अलग नहीं हूँ,
 इसलिए मैं भी परमात्मा का ही अंश हूँ।
गीता में श्रीकृष्ण भगवान ने कहा है कि "सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो" इसका भावार्थ हैं-
मैँ सभी प्राणीयोँ के दिल में बसता हूँ।   
अहं ब्रम्हास्मि: अर्थात मैं आत्म ब्रम्ह हूँ।     
 अहं ब्रम्हास्मि का सरल अर्थ है- 
अहं ब्रह्म अस्मि अर्थात मै ब्रह्म हूं।
 यह महावाक्य बृहदारण्यक उपनिषद में दिया गया हैं  

उपनिषद् शब्द का साधारण अर्थ है - ‘समीप उपवेशन’  अर्थात 

ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास बैठना 
- समीप बैठना
उपनिषद्  शब्द  ‘उप’,  ‘नि’  उपसर्ग तथा  ‘सद्’  धातु से निष्पन्न हुआ है।
सद् धातु के तीन अर्थ हैं :-
1. विवरण-नाश होना; 
2. गति-पाना या जानना
3. अवसादन-शिथिल होना। 
उपनिषद् में ऋषि और शिष्य के बीच बहुत सुन्दर और गूढ संवाद दिया गया है,                                                                                                                                                                                                  
जो पाठक (पढ़ने वालें)   को वेद के मर्म तक पहुंचाता है।
 उपनिषद अध्यात्मिक शास्त्र के प्रमाण ग्रंथ हैं।
 "अहं ब्रम्हास्मि" महावाक्य का संबंध यजुर्वेद से है। 
 यह महावाक्य यजुर्वेद से लिया गया है। 
  यह उपनिषदों के चार महावाक्यों में से एक महावाक्य है।
महावाक्य पुरे अध्यामिक शास्त्रों का निचोड़(सार) हैं।
यह महावाक्य वेद सार हैं और उपनिषद् में इसको एक सूत्र के रूप में व्यक्त किया हैं, इस महावाक्य के आधार पर मैं यह कहनें में सक्षम और स्वतंत्र हूँ- 
 अजर अमर अविनाशी आत्मा मेरा स्वरूप है और मैं आत्म रूप हूँ, 
अत: मैं अजर-अमर अविनाशी आत्मा ब्रह्म स्वरूप होने से व्यापक रूप हूँ, 
इसका प्रमाण वेद वाक्य हैं और यह महावाक्य इस कथन को पूर्णत: सिद्ध करता है। 
आत्म सो आत्म कहियें, आत्म भिन्न ना कोई।
आत्म राम सकल घट व्यापे सोई, 
आत्म मिले सो आत्म होई।
आत्म भिन्न दूजा ना कोई   
 अस्ति भांति प्रिय, अखंड रूप जोई


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