ॐ परमात्मा 
प्रथम तो यह समझ में नहीं आता की ऐसा क्या लिखा जाए ? जो सत्य को पूर्ण रूप से उजागर कर दे, क्योंकि गुरु महाराज कहतें हैं कि सत्य जैसा है, वैसा  दिखाई नहीं देता तथा जो दिखाई देता हैं, वह सत्य नहीं तो क्या हैं सत्य ? हम इस विषय पर विचार नहीं करगें क्योंकि सत्य जो है सो है, इसे न तो घटाया जा सकता है और न ही बढ़ाया जा सकता है अर्थात यह दोनों  ही कार्य सत्य में नहीं, 
तो हम उसके बारें में क्या लिखे ?  अब हम उस विषय को लेते हैं  जिसमें पहले कही हुई दोनों बाते सम्भव हैं अर्थात  जिसमें घट-बढ़ संभव हैं, उसमें बदलाव किया जा सकता है और जिसमें बदलाव किया जा सकता है, उसे अनुकूल या प्रतिकूल भी बनाया जा सकता हैं |
अब ख्याल आता है कि कौन- कौनसी चीजें हैं जिनकों हम बदल सकतें हैं, सच कहूं तो ऐसा कुछ भी नहीं जिसे हम बदल दे और मिथ्या कहूं 

तो ऐसा कुछ भी नहीं जिसे हम न बदल सकें अर्थात एक तरफ वह स्थिति है- जिसमें हम कुछ भी नहीं बदल सकतें हैं तो दूसरी तरफ वह स्थिति है- जिसमें हम सब कुछ बदलते हैं |
फिर भी इन दोनों स्थितियों का संचालन एक ही ह्रदय की हलचल है अर्थात जो बदलती हैं या जो नहीं बदलती हैं यह सब स्थितियाँ हैं पर इनको बदलने और नहीं बदलने वाल ह्रदय एक ही है, कही इस ह्रदय की पुकार बदलाव है तो कही  यह ह्रदय बदलाव को नकारता है|      
     

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