राज की चाह में निति खो रही है..

                                                               



                                                     


                                                                ॐ परमात्मा


इस समय चुनावी दौर चल रहा है, हम किसी एक उम्मीदवार को ही वोट दे सकतें हैं, इसका कारण है कि हमें केवल एक वोट का अधिकार है, पर यह अधिकार भी जब किसी जाल में घिरा हुआ मिले तो हमारें लिए  समझना और जाल से सुरक्षित निकलना एक दफा तो मुश्किल हो जाता है, ऐसा विचार क्यों आया, इसके पीछे क्या कारण हो सकता है, 

दरअसल  यह कोई आज का विचार नहीं,
ऐसा विचार तो पहले भी आया था , जब पिछली बार चुनाव हुए थे, यह घटना नवलगढ़ विधानसभा के नेता से जुडी है, जब  चुनाव होते है तो आरोप - प्रत्यारोप तो चलते ही हैं, यह तो आम बात हैं फिर भी इस प्रकार के व्यवहार से समस्या उस मतदाता को होती है, जो नेक नेता के सपने देखकर अपना अमूल्य वोट देता है, इस तरह के चक्रव्यू में आम जनता अपना विवेक खो देती हैं, क्या हैं यह सब ? खैर जो भी हो सबके लिए परमात्मा का एक विधान है, जिसमें न्याय ही होता है अन्याय नहीं, जो जनता को दोखा देता है, एक समय ऐसा आता वह स्वयं  ही दोखे में रह जाता है, हम किसी का नाम नहीं लेते पर नवलगढ़ की जनता के लिए यह बात नई नहीं है,  पिछले विधानसभा चुनाव में भी यह बात उछली थी, पर उस समय कोई प्रत्यक्ष रूप से सामने नहीं आया था, केवल बिना नाम के पर्चे छाप कर जनता को सूचित करने की कोशिश की गई थी, इससे कुछ नहीं हुआ और बात को यह कह कर टाल दिया गया -

की जो नेताजी की जीत से जलते हैं, उन्होंने ऐसा किया हैं , तब हमने भी यही समझा,

शायद हो सकता हैं! ऐसा ही हुआ हो पर उस समय की हमारी सोच को

इस चुनाव की घटना ने बेकार घोषित कर दिया , इस बार तो पीड़ित प्रत्यक्ष रूप से जनता के सामने आकर,
नेता जी के खिलाफ खड़ें होकर,
जनता से अपील करने लगें, जब हमनें ऐसा हाल देखा,
तो आज से पांच साल पहले 
जो पर्चे सडकों पर पड़े मिले थे और 
जिन पर्चों में नेता जी के लिए जहर उगला गया था, 
उन पर्चों की याद अचानक आँखों के सामने प्रत्यक्ष होती हुई दिखाई पड़ी और 
मन बोझिल- सा हो चला,
आखिर यह क्या हो रहा है? 
जीवन के लिए हमारा होना जरुरी हैं या हमारें लिए जीवन का होना जरुरी हैं? 
शायद इसे समझना थोड़ा मुश्किल हो,
पर इस पर विचार तो किया जा सकता है,  
जीवन में किसी की हार होगी तो किसी की जीत होगी,
यही सत्य हैं,
पर यह सत्य केवल उस समय तक की व्यख्या  है,
जब तक सत्य अपनी चरम सीमा तक नहीं जाता, 
जब सत्य अपने चरम पर होता है,
तो जीत हार में और हार जीत में बदल जाती  है या यु समझ ले पहले जो देखा वो सब भ्रम था और विवेक जागने के बाद जो पाया वह सही है | 



 



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